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करेगा, प्रत्युत वह युवावस्था में ही गृह त्याग के एक नवीन धर्म का नीवारोपण करेगा। पितृगण इस समाचार को सुनकर जरा वेदित हुए थे, परन्तु वे खूब लाड़वाब से पुत्र का पालन पोषण करने लगे अपने पुत्र के निकट कोई भी ऐसा कारण उपस्थित नहीं होने देते थे जिससे उसके कोमल चित्त पर संसार की नश्वरता का चित्र खिंच जायें। म० बुद्ध भी दिनों-दिन हाथोंहाथ बढ़ने लगे ।
दूसरी ओर भगवान महावीर के पिता का नाम नृप सिद्धार्थ था और भगवान की माता चिया प्रियकारिणी वंशाली के वजियन राजसंघ के प्रमुख राजा पेटक की वो धीं नृप सिद्धार्थ के विषय में यह कहा जाता है कि नाथ (जाति) वंशीय क्षत्रियों की ओर से वज्जियन राजस में सम्मिलित थे। इन ज्ञान क्षत्रियों को मुख्य राजधानी कुण्डनगर थी, जो वंशाली के निकट अवस्थित थी नृप सिद्धार्थ स्वयं नाथवंशीय (ज्ञाविवंशीय) काश्यपयोग क्षेत्र में भगवान महावीर अपने इस क्षत्रियवंश - ज्ञात्रि अथवा नायवश के कारण ही बौद्ध ग्रन्थों में निग्रन्थ नातपुत के नाम से उल्लिखत हुए हैं। भगवान का सुखकारी जन्म इन्हीं प्रख्यात् दम्पति के यहां कुण्डनगर में हुआ था। इनके जन्म से पितृगण को बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ था और उनके राज्य में विशेष रीति से हर बात में वृद्धि होते नजर आई थी, इसलिए उन्होंने भगवान का नाम बर्द्धमान रक्खा था । उपरान्त जब सोधर्मेन्द्र ने भगवान के जन्मोत्सव पर उनकी संस्तुति की तो उनका नाम महावीर रक्खा था इसी समय भगवान के जन्म सम्बन्धी शुभ समाचार सुनकर संजय नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि, जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। एक अन्य विजय नामक मुनि के साथ भगवान के दर्शन करने पाये थे, और उनके दिव्य रूप के दर्शन से उनकी पकाओं का समाधान हो गया वा इसलिए उन्होंने भगवान का नाम " सन्मति" रखा था। भगवान का इस प्रकार जन्म हो गया और वह देव देवियों की संरक्षता में दिनोंदिन वृद्धिको प्राप्त होने लगे ।
म० बुद्ध के पिता राजा शुद्धोदन किस धर्म के उपासक थे, यह स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। किन्तु बोद्ध ग्रन्थों में इन्हें पूर्व के बुद्धों का उपासक बताया है। यह पूर्व बुद्ध कोन पे यह अभी तक पूर्णतः प्रमाणित नहीं हुआ है, क्योंकि म बुद्ध के पहिले बौद्ध धर्म का मस्तित्व किसी तरह भी सिद्ध नहीं होता। बौद्ध शास्त्रों में इन वुद्धों की संख्या २४ बताई है। जनधर्म में भी "बुद्ध" विशेषण तीर्थंकर भगवान के लिए व्यवहृत हुआ है, ऐसी दशा में संभव है कि २४ बुद्ध जैन धर्म में स्वोकृत जैन तीर्थंकर हों और राजा शुद्धोदन उन्हीं के उपासक हों। डा० स्टीवेन्सन साहब इस ही मत की पुष्टि अपने कल्पसूत्र और नवतत्व" की भूमिका में करते हैं। इसके साथ ही राजा शुद्धोदन के गृह में जैन धर्म की मान्यता थी इसकी पुष्टि बौद्ध ग्रन्थ "ललितविस्तर के इस कथन से भी होती है कि "बाल्यावस्था में बुद्ध श्रीवत्स, स्वस्तिका, नन्द्यावर्त श्री वर्द्धमान यह चिन्ह अपने शीश पर धारण करता था । इनमें पहिले तीन चिन्ह तो क्रमशः शीतलनाथ, सुपार्श्वनाथ और अनाथ नामक जैन तीर्थकरों के चिन्ह हैं और अन्तिम वर्द्धमान स्वयं भगवान महावीर का नाम है। ग्रतएव यह कहा जा सकता है कि राजा शुद्धोदन भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थ के जैन श्रमकों के भक्त थे । इन्हीं जैन श्रमणों की उपासना भगवान महावोर के पिता राजा सिद्धार्थ किया करते थे । इस प्रकार दोनों समकालीन युग प्रधान पुरुषों के पितृकुल का विवरण है।
इस तरह स्वाधीन गणराज्यों में प्रधान प्रमुख राजाओं के समृद्धिशाली क्षत्रियों कुलों में जन्म लेकर दोनों ही युगप्रधान पुरुष दिनोंदिन चन्द्रमा को भांति बढ़ रहे थे। शीघ्र ही वे कौमार अवस्था को प्राप्त हुए और कौमारकाल की निश्चिन्त रंगरलियों में व्यस्त हो गये, किन्तु आजकल के युवकों की भांति बिलासिता की अधीनता इनके निकट छू भी नहीं गई थी। यह हो भी कैसे सकता था? वे स्वाधीन वातावरण में जन्म लिए प्रधानपुरुप थे, बोर आजकल के युवक परतंत्रता के प्रमोन
भाग्यवान् व्यक्ति है। इसलिए इनके शरीर और मन सर्वधा गुलामों को वू से भरे हुए है। वस्तुतः इन विलासिता के गुलाम युवकों के लिए इन दोनों युगप्रधान पुरुषों के बालपन के चरित्र अनुकरणीय आदर्श हैं।
कौमारावस्था में म बुद्ध अपने कुल के अन्य राजपुत्रों के साथ आनन्द से कीड़ा किया करते थे। स्वाधीन हिसा ' क्रीड़ायें प्रिय कुल में जन्म लेकर उनका हृदय पितृसस्कृति के अनुरूप प्रति कोमल और दयाद्वं था । एक दिवस वह अपने चचेरे भाई देवदत्त के साथ धनुकोशल का अभ्यास कौतूहलवश कर रहे थे । यकायक देवदत्त ने एक बाण उड़ते हुए पक्षी के मार दिया। वह देवारा निरपराध पक्षी पड़ान से इन दोनों के गाड़ी आ गिरा ! बुद्ध के लिए वह करुणाजनक दृश्य सत और असह्य था। वह भट से घायल पक्षी की ओर लपके और देवदत्त के इस दुष्टकृत्य पर घृणा प्रकट करते हुए उस पायल पक्षी के शरीर से बाण खींच लिया और उसकी उचित सुश्रूषा की बया का क्या अच्छा नमूना है। साज के नवयुवकों को भी निरपराध पशुयों के प्राण लेने का शौक चर्राया हुआ है उन्हें म बुद्ध के इस चरित्र से शिक्षा लेना श्रावश्यक है।
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