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मिथ्या मारगमें अनुराग, जिनवर धरम रहित गुण त्याग । दुष्ट काय प्रासवित कहेव, कौन करम यह कहिये देव ॥११३॥ मोक्षमार्ग को फल प्रभु कहो, कौन वास कह लक्षण लहौ । जती धर्म कहिये उत्कृष्ट, श्रावक तनै भाषिये इष्ट ||११४|| सर्पिणी उत्सर्पिणी पट काल, ताकी भेद कहयो सब हाल । तीनलोक विवरण प्रवभास, और शलाका पुरुष प्रकाश ।।११५|| भूत भविष्यत वर्त जु मान, तीन काल कहिये भगवान । बहुत उक्तिको कहै बढ़ाय, द्वादशांग सब भेद कहाय ।।११६॥ सो सब कृपा नाथ उच्चार, दिध्यध्वनि वाणी सुखकार 1 मध्यनिको उपकारक सोय, स्वर्ग मुकति पद प्रापत होय ॥११७।।
केवल यही चाहता है कि ग्राप अपने ही समान हमें भी सारी सम्पदाओंसे युक्त कर दें । आपकी अलौकिक सम्पदाएकर्मनाश से उत्पन्न हुई हैं, अक्षय सुखको देनेवाली हैं, अनाशवान हैं और संसारसे नमस्कृत हैं।
साप इस धरणी तल पर अत्यन्त उदार परम-दाता हैं और मैं अत्यन्त लोभी हं; आप प्रसन्न होकर मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें जिसमें मेरी अभिलाषा सफल हो। आपके ही घरण कमलों को इन्द्रःपूजा किया करते हैं, आप ही धर्म तीर्थके उद्धारक हैं, पाप कर्मरूपी महाशत्रुओं के नाशक हैं पाप ही महा योद्धा हैं और सम्पूर्ण संसार को स्वच्छ प्रकाश देनेवाले रत्नमय दीपक हैं। त्रिलोकीके तारने में आपही समर्थ एवं चतुर हैं एवं प्रापही उत्तमोत्तम गुणोंके प्रागार (खजाना) हैं। इसलिये हे प्रभो मैं संसार सागरमें निरबलम्ब होकर डूब रहा हूं। दया करके आप हमें बचा लें।
से हुआ है।
श्री महात्मा गाँधी जी अहिंसा के महान पुजारी थे, उन्होंने यह भाव भी जैन धर्म हो से प्राप्त किये थे । महात्मा गांधी जी जैसे महापुरुष स्वयं महावीर स्वामी को अहिंसा का अवतार मानते हैं। चीन के विद्वान प्रतान नशा ने अहिंसा का सबसे पहला स्थापक जन तीर्थंकरों को स्वीकार किया है।
जैन धर्म के अनुसार राग द्वेषादि भावों का न होना अहिंसा है और उनका होमा हिंसा है । ऋहिमा को विधिपूर्वक तो मुनि और साधु ही पाल सकते हैं, जिनमें उत्तम क्षमा है, जो वैरागी है, जिनको कष्ट दिये जाने पर भी शोक नहीं होता। 'गृहस्थी को इस प्रादर्श पर पहुंचना चाहिय' रोशा ध्यान में रखकर गृहस्थो यथाशक्ति हिंसा वा त्याग करते हैं। हिसा के चार भेद हैं
संकल्पी-जान बूझकर बरादे से हिंसा करना-मांसाहार के लिये धर्म के नाम पर हिंसक पश तथा शौक व फैशन के वश की जाने वाली हिंसा।
(२) उद्यमी-असि (राज्य व देश-रक्षा), मसि (लिखना), कृषि (वाणिज्य व विद्या कम) में होने वाली हिंसा : (३) आरम्भी—मकान आदि के बननाने, खान-पानादि कार्यों में होने वाली हिंसा ।। (४) विरोधी-समझाये जाने पर भी न मानने वाले शत्रु के साथ युद्ध करने में होने वाली हिंसा ।
गहम्थी यो अपने घरेलू कार्यो, देश-रोत्रा, अपनी तथा दूसरों की जान और सम्पत्ति की रक्षा के लिये उद्यमी, आरम्भी और विरोधी मा नो करती ही पड़ती है, इसलिए धावक के लिये यह ध्यान में रखते हुए कि हर प्रकार की हिंसा जहाँ तक हो सके कम से कम हो, फेवल जान नझकर की जाने वाली संकल्ली हिंसा का स्वागही अहिंसा है। ज्या-ज्यों इसके परिणामों में वाद्धता आती जायेगी त्यों-त्यों अहिंसा में व्रत में दवता होने हए. एक दिन ऐसा आ जाता है कि संसारी पदार्थों की मोह-ममता छूटकर वे मुनि होकर सम्पूर्ण रूप से अहिंसा को पालते हुए वह शत्र और मिध का भेद भलवर शेर-भेड़िये, सांप और बिच्छू जमे महा भयानक शतक से भी प्रेम करने लगता है जिसके उत्तर में वे भयानक पशु भी न केवल उन महापुरुषों से बल्यिा उनके समचे अहिंसामयी प्रभाव से अपने दाशुओं तक से भी बैर भाव भूल जाते हैं । यही कारण है कि तीर्थकरों के समवशरण में एक दूसरे के विरोधी पशु पक्षी भी आपस में प्रेम के साथ एक ही स्थान पर मिल-जुलकर धर्म उपदेश सुनते हैं। पिछले जमाने की बात जान दीजिये, आज के पंचम काल की वीसवी सदी में जैनाचार्य श्री शान्तिसागर जी के शरीर पर पाँच बार सपं चढा और अनेक बार तो दो-दो घण्टे तक उनके शरीर पर अनेक प्रकार की लीला करता रहा । परन्तु वे ध्यान में लीन रहे और सर्प अपनी भक्ति और प्रेम की श्रद्धाजलि भेंट करके बिना किसी प्रकार की बाधा पहुंचाये चला गया।
जयपुर के दीवान थी अमरचन्द बती धावक थे। उन्होंने मांस खाने और खिलाने का त्याग कर रखा था। चिड़ियाघर के शेर को मांस खिलाने के लिए स्वर्ग की मंजूरी के कागजात उनके सामने आये तो उन्होंने मांस खिलाने की आज्ञा देने से इन्कार कर दिया। चिड़ियाघर के कमचारियों ने कहा कि शेर का भोजन तो मांस ही है, यदि नहीं दिया जायेगा तो वह भूला मर जायेगा । दोबान साहब ने कहा कि भूख मिटाने के लिए उसे मिठाई खिलाओ । उन्होंने कहा कि शेर मिठाई नहीं खाता । दीवान अमरचन्द जैन ने कहा कि हम खिलायेंगे। वह मिठाई का पाल