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सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र, रत्नत्रय भूषण सुपवित्र । वस्त्राभरण रहित सब संग, प्रनमौं प्रभुहि दिगम्बर अंग ॥१४६।। नमों मुक्ति कान्ता भरतार, सखा तात प्रनमौं अविकार । स्वयंबुद्ध बन्दी तीर्थेश, तीन ज्ञान जिन नैन महेश ।।१५०॥ इन्द्रिय विमुख अमित अनभेव, प्रनमौं सन्मुख आननमेव । नमों कर्म अरि घातनहार, शुभ लक्षण गुण सिन्ध अपार ॥१५॥ इहि विधि तुव स्तवन अनेक, को बुध पार लह भव एक। दोज प्रभु मुहि सेवक जान, दीक्षा तप जिनमुक्ति निदान ॥१५॥
दोहा
इहि विधि बहु अस्तवन कर, पुनि पुनि भक्ति बढ़ाय । बारंबार प्रनाम प्रभु, सुरपति निज सुखदाय ॥१५॥ परम पुण्य को उदित कर, पूजा श्रुति माय । म जुग निब लोक को, गये हर्ष उर लाय ॥ १५४।।
चौपाई
अब कौनी प्रभु जोग अरूढ़, निश्चल तन पर्वत सम गूढ़ । उदित भयो जिम सोषमभान, जग जियको प्रिय करता वान॥१५॥ तप बल चौथी ज्ञान प्रकाश, भव्यन को सुख करता जास । षट महिना पर्यन्त सुहेत, ध्यान अडोल कियो सम चेत ॥१५॥
रहे? हे नाथ पामने अपने ध्यानरूपो अस्त्र से मोह नुमति के साथ ही साथ कर्म रूपी अन्य सब शत्रुओंका नाश कर डाला फिर यापक दय में क्ष्यालता कहां रहो? हे प्रभो, यद्यपि आपने अपने गिने गिनाये अल्प संख्यक बन्धनों का परित्याग कर दिया है तथापि अब तो स्वयं अपने गुणों के प्रभाव से सम्पूर्ण जगत् को वन्धु बनाये जा रहे हैं। फिर आपको बान्धव हीन कोई कमेकी सकता है ? हे चतूर, आपने सर्पके फणके समान सांसारिक भोगोंको छोड़ कर शुक्ल ध्यानरूपी अमृतको पीलिया है फिर मापक 'प्रोषध व्रत' कैसे होगा?
हे स्वामिन् ! पापकी इस दोक्षाको बुद्धिमानों ने ग्रादरकी दृष्टि से देखा और इसने संसार के तापों को एकदम शान्त कर दिया है। प्रापकी यह परम पवित्र महा दीक्षा पुण्यवारा के समान सदैव हम भव्य-जीवों की रक्षा करे। हे देव मन वचन एवं काय को प्रति विशुद्धता पूर्वक सम्पूर्ण जगत् की पवित्र कर देने वाली दीक्षा को प्रापने ग्रहण किया है । इसी महादीक्षा के बल पर मोक्ष चाहने वाले आपको नमस्कार है । आप शरीर-आदि के सुख से मुख मोड़ चुके हैं, मोक्ष मार्ग में निरन्तर अग्रसर हो रहे तप रूपी लक्ष्मी से प्रीति करने वाले हैं। दोनों तरह के परिग्रहों को छोड़ने वाले अापको नमस्कार है।
हे ईश सम्यक् दर्शन ज्ञान, चारित्ररूप तीन बहुमूल्य आभूषणों से अलवृत एवं अन्य पार्थिव प्राभपणों से होन आपको
1 सापने सम्पूर्ण वस्त्रों का परित्याग कर शुन्य दिशारूपी वस्त्रों को धारण किया है। ईश्वरत्व-प्राप्तिको साधना में बत हैं अत: पापको नमस्कार है । हे जिनेश्वर आप सकल परिग्रहों से ही एवं गुणरूपी सम्पत्तियों से युक्त हैं. प्रापको
यारी है. इसलिए आपको नमस्कार है। हे नाथ, माप इन्द्रियातीत अक्षय सुखमें चित्त को लगाने वाले विरक्त उपवास करके शुक्ल ध्यान रूपी अमृत के भोक्ता हैं, आपको नमस्कार है। हे देव प्राप दोक्षित होकर जानरूपी वाट नेत्रों के धारक हैं, बाल ब्रह्मचारी हैं, तोश हैं और स्वयं बुद्ध हैं, पापको नमस्कार है । आप कर्मरूपी शत्रुनों को सन्ततिके नाश
माणसागर है. और श्रेष्ठ क्षमा इत्यादिशुभलक्षणों से युक्त हैं, आपको नमस्कार है। हे देव, ग्राप इस संसार की सम्पूर्ण मागायोको पूर्ण करने वाले हैं, परन्तु यापकी स्तुति जो हम कर रहे हैं, वह संसार की श्रेष्ठ सम्पत्तियों को पाने के लिये नहीं करते। किन्तु जिस प्रकार बाल्यावस्था में प्रापने तप-दीक्षा ग्रहण को है, वही अतुलनीय शक्ति हमें भी प्राप्त हो। इस देवों के इन्द्र ने महावीर भगवान् की पूजा, स्तुति एवं नमस्कार करके अपार पुण्य का उपार्जन किया।
इसके बाद महावीर स्वामी ने अपने सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों का निश्चेष्ट अपने कर्मरूपो शत्रुओं के नाशक योग क्रिया का अवरोध किया। उस समय वे चेष्टा शम्य सुन्दर पत्थर की मूर्ति के समान जान पड़े। उस परमोत्तम ध्यान के प्रभाव से चतर्थ मन पयान प्रादर्भ त हया, जो कि महावीर प्रभुके लिय केवल ज्ञान प्राप्त होने का दिग्दर्शन था। मनुष्य प्रादि योनियों में प्राप्त
पदानों को निर्विकार होकर महावीर प्रभु ने तुच्छ तृण के समान जान कर छोड़ दिया और अविलम्ब दोक्षा ग्रहण कर ली। उन अनुपमेय महान् नुणशाली श्री वीरनाथको मैं स्तुति करता हूं। और नमस्कार करता है।