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हित उठ घोर लाप भोग ममत्व न अंग समाय यापय शोधन पर देत वाले नासा दृष्टि समेत ।। १५७॥ धनी निर्धनी एक समान, उर संवेग त्रिविध दृढ़वान । ना श्रति मन्द न शीघ्र चलाय, दयावंत भू शोधत जोय || १५८।। दर पुर नगरी पहुंचे जब कुल नाम नृप देखे तवं । उत्तम पात्र जान जिनराय पुण्य प्रताप मिल मुहि प्राय ।। १५६ ।। विधिपूर्वक पडगा सीय, अति आनन्द कियो उर जीम तीन प्रदक्षिण दे शिर नाय, पंच अंग भुवि बंदे पाय ॥ १६०॥ तिष्ठ विष्ठ स्वामी यह कही, शुद्ध बाहार लीजिये यहो तीन लोकपति दर्शन दयो, मेरी जन्म सुफल अर्थ भयो । ६१॥ सिहासन पं प्रभु बैठा लं प्रायौ नृप प्रासुक वार चरणकमल प्रक्षाले महां, अरु अस्नान कराएं तहां ॥१६२ ।। गन्धोदक बन्दौ नर ईश, तन पवित्र कीनो निज शीस अष्ट प्रकारी पूजा करी, भक्ति भाव प्रस्तुति उच्चरी ॥ १६३॥ भो प्रभु आज सुकृत यह भयो, गार्हस्थ्य पती सुफलता लवो पात्र लाभ उर ग्लिसो, सो फल फल समोइ ।। १६४॥ बहु । अब सुफल धन्य नाव शुभ वास पाज, तुम श्रागमन भयो विराज मुख पवित्र मेरो सब भयो, तुमरी प्रस्तुति उद्यत दी ।।१६५||
ध्यानमग्न हो सोचते मुक्ति कामिनी संग निज गुण दे, महंत प्रभु बाधारहित निसंग ॥ अर्थात् परिग्रहसे हीन एवं निर्बाध होकर मुक्ति रूपिनी स्त्री से सुख प्राप्तिकी अभिलाषा वाले और ध्यान में तल्लीन महावोन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूं । वे ग्रुपने वोर जनोचित गुणों को हमें प्रदान करें ।
इसके बाद महावीर स्वामी यद्यपि छः मास पर्यन्त अनशन तप करने में पूर्ण योग्य थे तथापि अन्य मुनीश्वरोको चर्यामार्गी ने पार कर लेने का निश्चय किया। वह पारणा (उपवासके बादका चाहार )
शरीर को स्थिति को शक्ति प्रदान करती है। महावोर प्रभु ईपिथकी शुद्धिको ध्यान में रखकर विचारने लगे कि आहार दान देने वाला निर्धन है या धनवान ? इसका दिया हुआ आहार दान पवित्र है अथवा अपवित्र ? वे अपने चित्तमें तीन प्रकारके वैराग्य का चिन्तयन कर रहे थे धीर अनेक दानियों को अपने वचन से सन्तुष्ट करते हुए स्वयं विशुद्ध माहारकी खोज में घूमने लगे । वे न तो एकदम मन्दगति से घोर न एकदम तीव्रगति से चलते थे । साधारण चालसे पैरोंको बढ़ाते हुए उन्होंने 'कल' नामक एक सुन्दर नगर में प्रवेश किया उस नगर का राजा कूल अत्यन्त पश्चिम के बाद प्राप्त हुए प्रिय धन-कोश (मावा) की तरह अनायास ही आये हुए जिनदेव जैसे उत्तम पात्रको देखकर परम प्रसन्न हुआ। उस राजाने महावीर स्वामाकी तीन प्रदक्षिणा की और भूमि पर पांच मंगों को देकर प्रणाम किया। बार में आनन्दल्लास के कारण "तिष्ठ, निष्ठ," दहरिये, ठहरिये ऐसा कहा धर्म-वृद्धि राजाने प्रभुको एक पवित्र एवं ऊंने स्थान पर बैठाया और उनके कमल जैसे सुन्दर एवं कोमल परणों को
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१. वीर का प्रथम श्राहार
जिस प्रकार वड़ का छोटा सा बीज बो देने से भी बहुत बडा वृक्ष उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार पात्र को दिया हुआ थोड़ा भी दान बहुत उत्तम तथा मनवांछित फल की उत्पत्ति करनेवाला हूँ। दान के फल से मिथ्याष्टि को भोग-भूमि के गुरु मिलते हैं और सम्यग्रष्टि स्वर्गों के भोगता हुआ परम्परा से मोता है। भगवान का प्रथम पारण करने वाला तद्भव मोदागामी होता है।
मुख
यात्रक धर्म-संग्रह पृ० १७१ । महावीर स्वामी का प्रथम आहार मगय देश के कूल ग्राम के सम्राट कूल के यहां २ घण्टे के उपवास के बाद हुआ ।
जो निर्ग्रन्थ मुनियों और सच्चे साधुओं को भक्तिपूर्वक विधि के साथ शुद्ध आहार देते है और जिनके ऐसे नियम हैं कि मुनि के आहार का समय गुजर जाने पर भोजन करेंगे। उनके पाप इस प्रकार घुल जाते हैं जिस प्रकार जल से बहू भूल जाता है। राज-सुख और इन्द्र-पद की प्राप्ति सहज से हो जाती है। मंसारी सुख तो चाधारण बात है, भांग भूमि के मनोवांछित फल भी आप से आप मिल जाते हैं। गुट ने नियम ले रखा था कि सम्यष्टि साधुओं के आहार का समय जब गुजर जाया करेना तथ भोजन किया करूँगा। इस नियम का मीठा फल यह हुआ कि वह कुवेरकान्त नाम का इतना भाग्यशाली से हुआ कि जिसकी देव भी सेवा करते थे। पिछले जन्म में इच्छाहित साधों को आहार कराने के कारण ही हरिषेण : खण्ड का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट हुआ जब स्थागियों और साधुओं के आहार कराने में इतना पुण्-लाभ हैं, तो जिसके घर तीर्थंकर भगवान का आहार हो उसके पुण्य का क्या टिकाना ? स्वर्ग तो उसी भव में गिल हो जाता है और मोक्ष जाने की ऐसी छाप लग जाती है कि थोड़े ही भव धारण करके वह अवश्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
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