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किसी एक दिन मनोहर नाम के पर्वत पर युगन्धर जिनराज विराजमान थे। पद्मोत्तर राजा ने वहां जाकर भक्तिपूर्वक अनेक स्तोत्री से उनकी उपासना की। विनयपूर्वक धर्म सुना और अनुप्र क्षात्रों का चिन्तवन किया । अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन से उसे संसार, शरीर और भोगों से तीन प्रकार का वैराग्य उत्पन्न हो गया। वैराग्य होने पर वह इस प्रकार पुनः चिन्तवन करने लगा। कि यह लक्ष्मी माया रूप है, सुख दुःख रूप है, जीवन मरण पर्यन्त है, संयोग-वियोग होने तक है और यह दुष्ट शरीर रोगों से सहित है । अतः इन सबमें क्या प्रम करना है ? अब तो मैं उपस्थित हुई इस काललब्धि का अवलम्बन लेकर अत्यन्त भयानक इस संसार रूपी पंच परावर्तनों से बाहर निकलता है। ऐसा विचार कर उसने राज्य का भार धनमित्र नामक पुत्र के लिए मीपा और स्वयं प्रात्म-शुद्धि के लिए अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। निर्मल बुद्धि के धारक पद्मोत्तर मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, दर्गनविशुद्धि प्रादि भावनामों रुप सम्पत्ति के प्रभाव से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध विया और अन्त में सन्यास धारण किया। जिससे महाशुक्र विमान में गहाशुक्रनाम का इन्द्र हुया सोलह सागर प्रमाण उसकी यायु थी और चार हाथ ऊंचा शरीर था। पदमलेश्या थी, आठ माह में एक बार श्वास लेता था, सदा सन्तुष्ट चित्त रहता था और सोलह हजार वर्ष बीतने पर एक बार मानसिक आहार लेता था । सदा शब्द से ही प्रवीचार करता था अर्थात् देवांगनाओं के मधुर शब्द सुनने मात्र से उसकी कामवाधा शान्त हो जाती थी, चतुर्थ पृथ्वी तक उसके अवधिज्ञान का विषय था, और चतुर्थ पृथ्वी तक ही उसकी वित्र या बल और तेज की अवधि थी। वहां देवियों के मधुर वचन, गीत, बाजे आदि से वह सदा प्रसन्न रहता था। अन्त में काल द्रव्य की पर्यायों से प्रेरित होकर जब वह यहां आने वाला हुआ।
तव इस जम्बू द्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के चम्पा नगर में वसुपूज्य नाम का अंगदेश का राजा रहता था वह इक्ष्वाकुवंशी तथा काश्यपगोत्री था। उसकी प्रिय स्त्री का नाम जयावती था। जयावती ने रत्नवृष्टि आदि सम्मान प्राप्त किया था। तदनन्तर उसने प्राषाढ़कृष्ण षष्ठी के दिन चौबीसवें शतभिषा नक्षत्र में सोलह स्वप्न देखे और पति से उनका फल जानकर बहुत ही सन्तोष प्राप्त किया। क्रम-क्रम से -पाठ माह बीत जाने पर जब नौवाँ फाल्गुन माह पाया तब उसने कृष्णपक्ष की चतुर्दशी
। बारुण योग में सब प्राणियों का हित करने वाले उस इन्द्ररूप पुत्र को सुख से उत्पन्न किया। सौधर्म आदि देवों ने उसे सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीर-सागर से लाये हुए जल के द्वारा उसका जन्माभिषेक किया, आभूषण पहनाये, वासुपूज्य नाम रखा, घर वापिस लाये और अनेक महोत्सव कर अपने-अपने निवास स्थानों की प्रोर गमन किया। श्री श्रेयांसनाथ तीर्थकर के तीर्थ से जव चौवन सागर प्रमाण अन्तर बीत चुका था और अन्तिम पत्य के तृतीय भाग में जब धर्म विच्छेद हो गया था तब वासुपूज्य भगवान् का जन्म हुया था। इनकी मायु भी इसी अन्तर में सम्मिलित थी, वे सत्तर धनुष ऊंचे थे वहत्तर लाख वर्ष की उनकी प्राय थी और के कुम के समान उनके शरीर की कान्ति थी। जिस प्रकार मेंढकों द्वारा प्रास्वादन करने योग्य अर्थात सजल क्षेत्र अठारह प्रकार के इष्टधान्यों के वीजों की वृद्धि का कारण होता है उसी प्रकार यह राजा गुणों की वृद्धि का कारण था।
जिस प्रकार संसार का हित करने वाले सब प्रकार के धान्य, समा नाम की इच्छित वर्षा को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं उसी प्रकार समस्त गुण इस राजा की बुद्धि को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले हो गये थे। सात दिन तक मेघों का बरसना त्रय कहलाता है, अस्सी दिन तक बरसना कणशीकर कहलाता है और बीच-बीच में आतप धूप प्रकट करने वाले मेघों का साठ दिन तक बरसना समावष्टि कहलाती है । गुण अन्य हरि-हीरादिक में जाकर अप्रधान हो गये थे परन्तु इन वासुपूज्य भगवान् में वही गुण मुख्यता को प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि विशिष्ट पाश्रय किसकी विशेषता को नहीं करते? चं कि सव पदार्थ गुणमय हैं- गुणों से तन्मय हैं अतः गुण का नाश होने से गुणी पदार्थ का भी नाश हो जावेगा यह विचार कर ही बुद्धिमान वासुपूज्य भगवान् समस्त गुणों का अच्छी तरह पालन करते थे। जय कुमार काल के अठारह लाख वर्ष बीत गये तब संसार से विरक्त होकर बुद्धिमान भगवान अपने मन में पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का इस प्रकार विचार करने लगे।
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