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चाहे भोग भोगकर वहां से च्युत हुप्रा और इस पृथ्वो तल पर जम्बू द्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र के मुरम्य देश में पोदनपुर नगर के राजा प्रजापति की प्राणप्रिया मृगावती नाम की महादेवी के शुभ स्वप्न देखने के बाद त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। काका का जीव भी वहाँ से-महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर इसी नगरी के राजा की दूसरी पत्नी जयावती के विजय नाम का पुत्र हुआ। और विशाखनन्दी चिरकाल तक संसारचक्र में भ्रमण करता हुआ विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी की अलका नगरी के स्वामी मयूरग्रीव राजा के अपने पुण्योदय से शत्र राजाओं को जीतने वाला अश्वनीव' नाम का पुत्र हुआ। इधर बिजय और त्रिपाठ दोनों ही प्रथम बलभद्र तथा नारायण थे, उनका शरीर अस्सी धनुष ऊचा था और चौरासी लाख वर्ष की उनकी प्राय थी। विजय का शरीर शंख के समान सफेद था और विपृष्ठ का शरीर इन्द्रनीलमणि के समान नीला था। ये दोनों उदृण्ड, अश्वत को मारकर तीन खण्डों से शोभित पृथ्वी के अधिपति हुए थे । वे दोनों ही सोलह हजार मुकुट-बद्ध राजाना, विद्याधरीएव घ्यन्तर देवों के अधिपत्य को प्राप्त हुए थे। त्रिपृष्ठ के धनुष, शंख, चक्र. दण्ड, असि, शक्ति और गदा ये सात रत्न थे जो कि देवों से सुरक्षित थे।
बलभद्र के भी गदा, रत्नमाला, मूसल और हल, गे चार रत्न थे जो कि सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र और तप के समान लक्ष्मी को बढ़ाने वाले थे । त्रिपुष्ठ की स्वयंप्रभा को प्रादि नेकर सोलह हजार स्त्रियां थीं और बलभद्र के चित्त को प्रिय लगने वाली पाठ हजार स्त्रियां थीं। बहुत प्रारम्भ ओर बहुत परिग्रह को धारण करने वाला त्रिपुष्ट नारायण उन स्त्रियों के साथ चिरकाल तक रमण कर सातवों पृथ्वी को प्राप्त हुअा-सप्तम नरक गया। इसी प्रकार अश्वग्रीव प्रतिनारायण भी सप्तम नरक गया। बलभद्र नेमाई दुःस से पुःख होकर उसी समय सुवर्णयुम्भ नामक योगिराज के पास संयम धारण कर लिया और कम-क्रम से अनगारखेवली हुया । देखो, त्रिपष्ट और विजय ने साथ ही साथ राज्य किया, और चिरकाल तक अनुपम सुख भोगे परन्तु नारायण-त्रिपष्ठ समा दुःखों के महान् गृह स्वरूप सातवं नरक में पहुंचा और बलभद्र गुख के रथानभूत त्रिलोक के अग्रभाग पर जाके अधिष्ठित हुआ इसलिए, प्रतिका रहने वाले इस दुष्ट कर्म को धिक्कार हो । जब तक इस कर्म को नष्ट नहीं कर दिया जावे तब तक इस संसार में मुग्य का भागो कौन हो सकता है ? त्रिपृष्ठ, पहले तो विश्वनन्दी नाम का राजा फिर महामृत्रा स्वर्ग में देव हुमा, फिर बिपृष्ठ नाम का अर्धचक्री-नारायण हुआ और फिर पापों का संचय कर सातव नरक गया। चलभर पहले विशाखभूति नाम का राजा था फिर मुनि होकर महाशुवा स्वर्ग में देव हुआ, वहां से 'बयकर विजय नाम का बलभद्र हया और फिर मंसार को नष्ट कर परमात्मा-अवस्था को प्राप्त हुना। प्रतिनारायण पहले विशालनन्दो हुमा, फिर प्रताप रहित हो मरकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा, फिर अश्वग्रीव नाम का विद्याधर हया जो कि त्रिपृष्ठ नारायण का शत्रु होवार अधोगति-नरक गति को प्राप्त हुआ।
भगवान् वासुपूज्य जो वासु अर्थात् इन्द्र के पूज्य हैं अथवा महाराज वसुमुज्य के पुत्र है और सज्जन लोग जिनको पूजा करते हैं ऐसे वासुपज्य भगवान अपने ज्ञान से हम सबको पवित्र करें। पाकरावंद्वीप कं पूर्व गरु की योर सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती नाम का एक देश है। उसके अतिशय प्रसिद्ध रत्नपुर नगर में पद्मोत्तर नाम दा राजा राज्य करता था। उस राजा की गुणमयो कीति सबके वचनों में रहती थी, पुण्यमयी मूनि सबके नेत्रों में रहती थी, और धर्ममयो बृत्ति सवक चित्त में रहती थी। उसके वचनों में शान्ति थो, चित्त में दया थी, शरीर में तेज था. बुद्धि में नीति थी, दान में धन था, जिनेन्द्र भगवान में भक्ति थी और भजनों में प्रताप था अर्थात् अपने प्रताप से गानों को नष्ट करता था। जिस प्रकार न्यायमार्ग से चलने वाले मुनि में समितियां बढ़ती रहती हैं उसी प्रकार न्यायमार्ग से चलने वाले उस राजा के पृथ्वी का पालन करते समय प्रजा खब माद रही थी। उसके गुण ही धन था तथा उसकी लक्ष्मी भी गुणों से प्रेम नारंग वाली थी इसलिये वह उस लक्ष्मी के साथ विना किसी प्रतिबन्ध के विशाल सुख प्राप्त करता रहता था।
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