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बनमें सो सुन्दरि एकली, पूरब करम भजै मन रली। मन में पंच परम गुरु पान, धरम ध्यान निहर्च परवान ॥३५६।। इह अवसर इक बनचर आय, अवलोकी सुन्दरि को जाय । रूपवंत लक्षण संजुत्त, ले आयो सो ताहि तुरंत ॥३६॥ कोशाम्बी पुर नगर महान, वृषभसेन तहं सेठ मुजान । तिहि को पानि दई नर ताहि, अति प्रमोद कर लीनी वाहि ॥३६॥ ताके गेह सुभद्रा नार, देहि चन्दना मनहि विचार । रूपवंत नवजीवन जान, मनमें सौत शंक प्रतिमान ॥३६॥ रूप हनन को उद्यम कियो, कष्ट चन्दना को तिहि दियौ। अधिक पुराने कोदौं नीज, स्वाद रहित मन में सो खीज ||३६३।। तक सहित मृत भाजन माहि, सो दीनौ दुरबुद्धिनि ताहि। खाय नहीं रोबै जब खरी, पापिन और उपाय जु करी ॥३६४॥ बन्धन बांधि खननि धरी, बहत भांति बह संकट परी। भगत पूरब करम जुधीर, धर्मध्यान नहि तजै शरीर ॥३६शा तिहि अवसर वाही पुर पाय, चरजाहित आये जिमराय। देख चन्दना प्रभुको सबै, बन्धन टूट गये वपु सबै ॥३६६।। तनके सकल शोक नश गये, परम हुलास चित्तमें भये । सन्मति प्रभु पद प्रनमैं आय, हस्त जोर भुवि शीस लगाय ॥३६७|| पडगाहै विधिपूर्वक सोइ, सिमावरमें होशील महाना राबै यह जान, पाये प्रभुको कुमानिधान ॥३६॥ सो वह तक कोदवन वोद, तंदुल खीर भयौ अनुमोद । माटी पात्र हेम मय सोय, धरम तनै फल कहा न होय ॥३६॥ बही अन्त प्रासुक विधि सार, दीनौ प्रभुको परम प्रहार । भक्तिभाव ताके उर भयो, नवप्रकार विधि पुण्य जु लयौ ।।३७०|| पंचाश्चर्य किये सुर छाय, रतनादिक वरषा अधिकाय । ले अहार प्रभु वनको गये, ध्यानारूढ़ पातमा नये ॥३७१।। वृषभसेन प्रनमैं पद पाय, तुम हो सती शिरोमणि माय । अरु बहु प्रस्तुति कीनी सबै, मो अपराध क्षमा कर अब ।।३७२॥ होइ दानसों सुख अधिकाय, संकट विकट सबै मिट जाय । क्षणभंगुर जाने संसार, प्रभु पद लहौ महावत' धार ॥३७३।।
दोहा
लहो चन्दना दान फल, जगमें जस अधिकाय । शील सहित दीक्षा लई, भई अजिका जाय ॥३७४।।
इसके बाद महातीर प्रभु छयस्थ अवस्था में मौनी होकर विहार करने लगे बारह वर्ष बीत जाने पर वे जम्भिका नामके गांवके बाहर ऋजुकला नामकी नदीके किनारे बहुमूल्य रत्नोंको शिलापर शाल-वृक्षके नीचे प्रतिमायोग को धारण करके षष्ठो. पवासी हो गये और श्रेष्ठ ज्ञानकी सिद्धिके लिये ध्यानमें तत्पर हुए। उन्होंने शीलरूपी अठारह हजार कवचोंको धारण किया, चौरासी लाख गुणोंको अपना प्राभुषण बनाया महाबत अनुप्रेक्षा शुभ भावना रूपी वस्त्रोंसे वे सुसज्जित हुए, संवेगरूपी महा गजराज पर प्रारूढ़ हुए और रत्नत्रय रूपी महावाणोंको धारण कर चारित्र रूपी समरभूमिमें उतर पड़े। तप ही उनका धनुष था, ज्ञान दर्शन ही फणीच था। और गुप्ति आदि सेनामों से वे घिरे हुए थे। इस प्रकार महावीर प्रभु यथार्थ में ही महावीर महान योद्धा होकर कर्मरूपी दुष्ट शत्रुनों को मारने के लिए अनबरत उद्योग में तत्पर हो गये। सर्वप्रथम उन्होंने मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से सकल कर्म नाशक एवं शरीर हीन सिद्ध पुरुषों के सम्यक्त्वादि पाठ गुणोंसे युक्त ध्यान करने में लग गये । जो कि सिद्ध पुरुषों के श्रेष्ठ गुणों के अभिलाषो हैं वे क्षायिक-सम्यक्त्व अनन्त केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, प्रवगाहन, अगु
जो अपनी कमजोरी तथा जबरदस्ती करने से धर्मपद तक से गिर गये हों, उनको भी दोबारा धर्म पर लगाना जैन धर्म की मुख्यता है। . सत्य की विजय हुई। चन्दनाजी का शीलवत कब खाली जा सकता था? महारानी मुगावती ने सुना तो वह महाभाग्य चन्दनाजी को बधाई देने आई : बन्धन में पड़ी हुई दासी का यह सौभाग्य ? यह तो लोक के लिये ईर्ष्या की वस्तु थी। क्योंकि लोक तो उसे दासी ही जानता था । भगवान महावीर ने मुह से नहीं, बल्कि अपने चरित्र से चन्दना का उद्धार करके दास-दासी अथवा गुलामी का अन्त करने का आदशं उपस्थित किया । -महारानी मगावती ने उसे देखा तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास न पाया। उसकी प्रसन्नता का पार न था। वह चन्दनाजी को अपने साथ राजमहल में ले गई । माता-पिता के पास दूत भेजा वे सब वर्षों से विछड़ी हुई चन्दनाजी से मिलकर बहुत खुश हुए। चन्दना जी ने उद्धार पर संतोप को सांस ली जरूर, परन्तु उसने संसार की ओर देखा तो दुनिया में उस जैसी दुखिया बहुत दिखाई पड़ीं। आखिरकार जब भपवान महावीर को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया तो चन्दना जी ने स्त्री जाति को संसारी दुःखों से निकाल कर मोक्ष मार्ग पर लगाने तथा अपने आरम कल्याण के लिये जिन दीक्षा ले ली।
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