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वर्धमान स्वामी की तपस्या तथा कर्मक्षय निरूपण-१
छन्द चाल प्रभु विहरै वन बहु प्रामा, उर ध्यान धरै अभिरामा । मोनी छद्मस्थ महाना, रहै, द्वादश वर्ष प्रमाना ॥३७५।। अब चंबक ग्राम सुथाना, बाहिर बन सुभग महाना । ऋजुकूला सरिता नीरा, तहं रतन शील गम्भीरा ।।३७६।। ऊपर तरु साल बखानौ, शाखा गम्भीर सुजानी। श्री सन्मति प्रभु तहं पाई, प्रतिमा सम ध्यान धराई ॥३७७।।
कलघ और अव्याबाध इन आठ श्रेष्ठ गुणों का सदैव ध्यान करते रहते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा ही करना चाहिये। इसके बाद विवेक शील महाबीर प्रभु पवित्र मनसे प्राज्ञा विचय इत्यादि चार प्रकार के धर्म ध्यानों के चितवन में लगे। पूर्वके चार कपाय मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियां और देवायु, नरकायु एवं तिर्यंचायु ये सब कर्मरूपी दस शत्रु जब कि प्रभु चतुर्थ से सप्तम गुण स्थानमें प्राव.
१. वीर-तप तप से कम कटते हैं, पापों का नाश होता है। राज्य-सुख और इन्द्र-पद तो साधारण माल है, तप से तो संसारी आत्मा, परमात्मा तक हो जाती है । तप बिना मनुष्य-जन्म निप्फल है।
लौक्रान्तिकदेव : बर्द्धमान पुराण, पृ० ६.! कमों की निर्जरा के हेतु श्री वर्द्धमान महावीर छः प्रकार का वाह्य तथा छः प्रकार का अन्तरंग, १२ प्रकार का तप करते थे :१. अनशन--कपायों और इच्छाओं को घटाने के लिए भोजन का त्याग करके मर्यादा रूप धर्म ध्यान में लीन रहना । २. अवौवयं--इन्द्रियों की लोलुपता, प्रमाद और निद्रा को कम करने के लिये भूख से कम आहार लेना।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-भोजन के लिये जाते हुए कोई प्रतिज्ञा ले लेना और उसे किसी को न बताते हुए उसके अनुसार विधि मिलने पर भोजन करना, नहीं तो उपवास रखना।
४. रसपरित्याग स्वाद को घटाने और रसों से मोह हटाने के लिए मोठा, घी, दूध, दही, तेल, नमक इन छः रसों में से एक या अनेक का मर्यादा रूप त्याग करना।
५. विविक्त शाय्याशन-स्वाध्याय, सामायिक तथा धर्म ध्यान के लिये पर्वत, गुफा, श्मशान आदि एकान्त में रहना। ६. कासक्लेश-शरीर की मोह-ममता कम करने के लिए, शरीरी दुःखों का भय न करके महाघोर तप करना । ७. प्रायश्चित-प्रमाद ब अज्ञानता से दोष होने पर दण्ड लेना। १. विनय - सम्यग्दर्शी साघुओं, त्यागियों और निगध मुनियों का आदर-सत्कार करना। ६. बच्यावत्य-बिना किसी स्वार्थ के आचार्यों, उपाध्यायों, तपस्वियों तथा साधुओं की सेवा करना । १०. स्वाध्याय- आत्मा के गुणों को विश्वारा पूर्वक जानने तथा धर्म की वृद्धि के लिये शास्त्रों का मनन करना। ११. व्युतसर्ग-२४ प्रकार के परिग्रहों से ममता त्यागना । १२. ध्यान–चार प्रकार के होते हैं :
(१) आतं-स्त्री-पुषादि के वियोग पर शोक करना, अनिष्ट सम्बन्ध का खेद करना, रोग होने पर दुःखी होना, आगामी भोगों को इच्छा करना।
(२) रौद्र-हिमा करने, कराने व सुनने में आनन्द मानना । असत्य बोलकर, बुलवाकर, बोला हुमा सुनकर खुशी होना। चोरी करके, कराकर, सुनकर हर्षित होना । परिग्रह बढ़ाकर, बढ़वा कर, बढ़ती हुई देखकर हर्ष मानना।
(३) धर्म-साल तत्वों को विचारना, अपने व दूसरों के अज्ञान को दूर करने का उपाय सोचना, पाप कमों के फल का स्वरूप विचारना, यह विचारता कि मैं कौन हूँ ? संसार क्या है ? मेरा कर्तव्य क्या है ? तथा बारह भावनाएं मानना ।
(४) गुक्ल-शुद्ध आत्मा के मुरषों का बार-बार चिन्तवन करते हुए उसी के स्वरूप में लीन रहना।
आत्त और रौद्र तो पाप बंध का कारण है। धर्म व शक्ल में जितनी अधिक जीतरागता होती है उतनी ही अधिक कमो की मिर्जरा होती है और जितना शुभ गग होता है उतना अधिक पुण्य बन्ध का कारण है। श्री भगवान् महावीर आतं और रौद्र ध्यान का त्याग करके मन बचन काय में धर्म-ध्यान तथा शक्लध्यान में लीन रहते थे।
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