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प्रभु जिहि वन धारै जोगा, षट ऋतुफल फल मनोगा। गो सिंह रहैं इक थाना, सबहिं मैत्री भाव निदाना ॥३७॥ शील सहस अठारह जानौ, ताको तन बखतर मानौ । ताके अब सुनियो भेदा, जाते सब नाश खेदा १३७६।।
शील के अठारह हजार भेदों का वर्णन
दोहा
देव मनुष' तिरंचिनी, नारी तीन विनोद । त्यागौ मन वच काय, कृत कारित अनुमोद ।।३८०|| पांचों इंद्रिय सी गुणे, संज्ञा चार बखान । दवित भावित दोय गुण, षोड कषाय प्रमान ॥३८१|| सत्रह सहस जु दोयस, ऊपर प्रसी निदान । अब अजीव त्रिय भेद सून, चित्र काठ पापान ।।३५२।। मन वच त्यागौ दोय गुण, कृत कारित अनुहर्ष । पांचों इन्द्रिय संज्ञ चह, दवित भावित पर्ष ॥३५३।। सातस बीज जु जोर के, ए सब देव मिलात । शील अठारह सहस गनि, भेद कहे जिनराय ।।३८४।।
पद्धति छन्द
सम्यक्त्व महागज पर अरूद, वैराग तनी नर भूमि गूढ़ । तप चाप लियो करमें महान, पुनि दर्शन ज्ञान जु तीक्ष्णवान ।।३८५|| प्रब पंच महावत समिति पंच, अरु तीन गुप्ति सब सेन संच । इहि विधि आलंकृत सुभट वोर, है सबै एकतें एक धीर ।।३८६।। उन कर्मशत्र मन दमन साथ, पारत्य रोद्र किय जन्न हाथ । इन ही की जीतें सिद्धि होय, गुण अष्ट जीवतहि लहई सोय ।।३८७।। प्रभ निरमल चित अति अचल होय, मन धर्मध्यान उत्कृष्ट सोय । जिन चौथे गणथानक प्रगार, क्षय करी प्रकृति सातों संवार।।३८८॥ सो क्रोध मान माया ए लोभ, ए अनंतानुबन्धी अछोभ । मिथ्यात समय मिथ्यात जान, पुनिसमय प्रकृति मिथ्यात हान ॥३८॥
कृति इन घात होय, तब क्षायिक समकित शुद्ध होय । प्रभु तप बल सातम गुणस्थान, तहं तीन प्रकृति चरी महान ||३९०॥ तिरजंच प्राय पर देव आयू, पुन नरक प्रायु ये तीन भाव । अब मोह भर दल डगमगान, प्रभ जीत लये जोधा महान | |
स्थित थे तब स्वयं ही नष्ट हो गये । इन कर्मरूपी महाशत्रुओं को नष्ट करके विजयी महायोद्धा के समान महावीर प्रभ शुक्ल ध्यानरूपी विशाल प्रायुधको अपने हाथों में ग्रहण कर मोक्षरूपी राज प्रासाद को प्राप्त करने के लिये क्षपकश्रेणी रूपी सीढ़ियों पर चढ़ने लगे और मार्गके अन्य कर्मरूपी शत्रुओं के नाश में प्रवृत्त हुए। स्त्यानमृद्धि नाम के दुष्टकर्म, निन्द्रा-अनिद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्री-द्विइन्द्री-विइन्द्री-चतुरिन्द्री रूपी चार घातिया, अशुभ नरकगति प्रायोम्यानुपूर्वी, तिर्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, पातप, उद्योग, स्थावर, सूक्ष्म साधारण इत्यादि कर्मरूपी सोलह शत्रुओं को महावीर प्रभु ने पराक्रमी वीरकी तरह नष्ट कर दिया। तदुपरान्त वे शुक्ल ध्यान रूपी तलवार को ग्रहण किये हुए और क्रमश: चारित्र के घातक पाठ कपायों को द्वितीय अंशमें, नपुसक वेदको तृतीय ग्रंश में, स्त्री वेद को चतुर्थ अंशमें, हास्यादि छ: को पञ्चम अंगमें, पुरुष वेद को पष्ठ अंशमें, संज्वलन • क्रोधको सप्तम ग्रंश में, संचलन मानको अष्टम अंशमें, संज्वलन मायाको नवम अंश में, अपने शुक्ल व्यानरूपी प्रायुधसे इन सत्रों • का नाश कर दिया । इस प्रकार कर्मरूपी शत्रुओं की अनेक सन्ततितोंको नष्ट कर महावीर प्रभु दशव गुण स्थान पर प्रारूढ़ हुए
और वहां चौथे ध्यान के प्रभाव से संज्वलन लोभको नष्ट कर क्षोण कषायो हो गये। वे संना सहित मोह कर्म रूपी राजा को नष्ट कर शूर-शिरोमणि के समान शोभायमान हुए। बाद में ग्यारहवें गुण स्थानको पारकर वे बारहवें गुणस्थानको प्राप्त हुए और वहां केवल ज्ञानके उत्तम राज्यका अधिकार स्वीकार हो जाने के लिये प्रयत्नशील हुए। महावीर प्रभुने बारहवं गुणस्थानके अंतिम दो समयों में से पूर्व समय में निन्द्रा एवं प्रचला इन दोनों कों का नाश किया। इस कार्य में उन्हें शुक्ल ध्यान के दूसरे भाग से सहायता मिली इसके बाद फिर जगद्गुरु महावीर स्वामी ने शुक्ल ध्यान के उसी दूसरे हिस्सेसे पाँच ज्ञानावरण कर्म, चार दर्शना वरण कर्म और पांच अन्तराय कर्मों का नाशकर दिया। ये हो चौदह घातिया कर्म है। जिस तरह कि तीक्ष्णवाण से कपड़े के कई