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पंचन्द्रिय विषय वर्णन
चौपाई रवि विमान है जैसो अख, सो चक्रो निज द्रगसों लखै । राई ठनक सबद दल होई, ततछिन सुनै शबद कर सोइ ॥७६।। दल मुगन्ध दुर्गन्धा जिती, नाका विषय सौं जानौ तितौ । पदस भोजन इकठे कर, रसना स्वाद जुदे जुद धरै ।।७७।। सहस छयानवे नारीगेह, तितनी धरै विक्रिया देह । सूल शरीर पट्ट तिय संग, नित प्रति योग विषय यह अङ्ग ॥७८||
दोहा यह विधि चक्री भोगवे, अखै सम्पदा जेह । सेनापति माज्ञा वहै, नवविधि दल रचि देह |७६||
दल (सेना) भेद वर्णन
चौपाई नौ विधि दल भाष्यो जिनदेव, ताको भेद सुनी स्वयमेव । प्रथम पती सेना सुख नोक, पंचम बाहन चमू जु ठीक ||oil वरूथिनी दंडी क्षौहिणी, जाको भेद सुनौ अवगुणी। इक इक गजग्थ बाजी तीन, पाइक पंथ पती गुण लीन ॥८॥ गजरथ तीन तीन नव बाज, पन्द्रह पाइक सेना साज । जौ गजरथ रथ हय सतबीस, सुखके पाइक पेंतालीस ॥२॥ सप्त वीस रथ गज पहिचान, इक्यासीय तुरंगम जान । पाइक सब इकसं पैतीस, दल अनीक है कहो जिनीश ॥३॥ गज इक्यासी रथ पुन तिते, ह्य दोस तेतालिस मितं । प्यादे कहै चारस पांच, भेद वाहिनी को यह साँच ॥४॥ दो संतालीस गयंद, तितने ही रथ कहै जिनंद । उनतिस अधिक सात से बाज, वारहसै पन्द्रह पद साज ||५|| चम् तनी है संख्या इति, वरूथिनी अब भास्यो तिती। सात से बावन तिस गज कहे, पुन तितने ही रथ सरदहे ॥६॥ है सहस्त्र इकसौ हय जान, तापर अधिक सतासी मान । पाइक तीन सहस से षष्ट, अरु पैंताल वरूथी गुण्ट ||| है सहस्त्र इकसौ गजराज, तापर अधि सतासी साज । रथ संख्या इतनी मानिये, षट् सहस्त्र यह बर जानिये || और पांच से इकसठ होय, आगे सुन अब पायक सोय । दश सहस्त्र नौ से पंतोस, दण्ड भेद भाषौ जिन ईसा गज एक सहस सहस शत पाठ, ताप अधिक जो सत्तर ठाठ । तितने ही रथ लीजो जान, पैसठ सहरा वाजि पहचान की छहस दश ता ऊपर गर्न, पैदल एक लाख तहभने । नव सहस्त्रात साढ़े तीन, क्षोहिनी संख्या यह परवीन ॥६१||
महल वर्णन
दोहा मन्दिर चौरासी खनै, उपमा है असमान । परम भूति चक्रेश की, जिनमत लीजो जान ।।१२।।
धर्म प्रवृत्ति वर्णन
चौपाई होय धरम सो सिद्धि अनेक, अर्थ काम सब सुख प्रत्येक । जब कुधर्म को त्याग जु करै, मोखननी सामग्री धरै ॥३॥ यह जानै नित सुबुध मनोग, मन, वच, काय कर्म-संजोग । सुक्रत आदि...अनेक प्रकार, धरै धर्म उत्तम सुखकार | सम्यग्दर्शन शुद्ध स्वरूप, निशंकादि गुणरूप अनूप । निर अतिचार अणुव्रत मीत, पालै सागारीधरि प्रीत ।।१५।।
है। यह समझकर उस बुद्धिमान ने मन-वचन काय से धर्म की शरण ग्रहण की। शंका प्रादि दोषों से सर्वथा दूर रहकर सम्यग्दष्टि राजाने धावकोंके १२ व्रत धारण किये । वह चारों पर्व दिनोंको प्रारम्भ रहित पाप नाशक प्रोषधोपवासोंका पालन किया करता था।
. ऊंचे और भव्य जैन मन्दिरों का निर्माण कर उसने स्वर्ण और रत्नमयी कितनी ही जिनेन्द्र मूर्तियों की स्थापना की, वह अपने घर के चैत्यालय तथा अन्य बाहर के भी जिन-मंदिरों में भक्ति भाव से पूजा करने के उद्देश्य से पाया करता था। साथ ही