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हिन्दू पुराणादि ग्रन्थों में भी जैन मुनि इस नाम से उल्लिखित हुए हैं । "
"वरायहं हुबई दियंवरेण । सुपसिद्ध गामै कणयामरेण ॥
१५. दिग्वास - यह भी नम्बर
( ५ । १०) में है - दित्वाससामयं धर्मः ।
१६. नग्न — यथाजातरूप जैन मुनि होते हैं, इसलिये वह नग्न कहे गये हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य जी ने इस शब्द का उल्लेख यों किया है।
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१४ के भाव में प्रयुक्त हुआ जनेतर साहित्य में मिलता | 'विष्णु पुराण' में
"भावेण होइ णग्गो, बाहिरलिंगेण किं च णम्गेणं वराहमिहिर कहते हैं- "नग्नान् जिनानां विदुः ॥ ४
१७. निश्चेल - वस्त्ररहित होने के कारण यह नाम है। उल्लेख इस प्रकार है :
“णिच्चेल पाणिवत्तं उबइठ परम जिणवरदेहि । *
१८. निर्ग्रन्थ – ग्रन्थ अर्थात् अन्दर-बाहर सर्वथा परिग्रह रहित होने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध हैं । 'धर्मपरीक्षा' में निर्ग्रन्थ साधु को वाह्याभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) रहित नग्न ही लिखा है :-- 'त्यक्तवाह्यान्तरग्रन्थो निःकषायो जितेन्द्रियः ।
परीषहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः || १८ || ७६ || '
"मूलाचार" में भी अचेलक मूल गुण की व्याख्या करते हुए साधु को निग्रॅन्थ भी कहा है :"वत्थाजिणवक्केण य श्रहवा पत्तादिणा श्रसवरणं ।
णिभूण णिग्ग्रंथं अचेलक्कं जगदि पूज्जं ॥३०॥७
'भद्रबाहु चरित्र' के निम्न श्लोक भी निर्ग्रन्थ शब्द का भाव दिगम्बर प्रकट करते हैं
अर्थ - "जो मूर्ख लोग निग्रन्थ मार्ग के बिना परिग्रह के सद्भाव में भी मनुष्यों को मोक्ष का प्राप्त होना बताते हैं उनका कहना प्रमाणभूत नहीं हो सकता । "
'निग्रंथ मार्गमुत्सृज्य सग्रन्थत्वेन ये जडाः ।
व्याचक्षन्ते शिवं नृणां तद्वचो न घटामटेत् ॥६५॥
"अहो निग्रन्थता शून्यं किमिदं मतम् ।
नत्र युज्यते गन्तु पात्रदण्डादिमण्डितम् || १४५॥
अर्थ - "अहो । निन्यता रहित यह दण्ड पात्रादि सहित नवीन मत कौन है? इनके पास मेरा जाना योग्य नहीं है ।"
३. अष्ट० पृ० २०० | ४. वराह मिहिर १६६१
५. प्रष्ट० पृष्ठ ६३ ॥
६. मुला०, पृष्ठ १३ ।
७. भद्र०, १०७८ व ५६ ॥
अर्थ – "भगवन् ! मेरे आग्रह से प्राप सब परिग्रह छोड़कर पहले ग्रहण की हुई देवताओं से पूजनीय तथा पवित्र निग्रंथ अवस्था ग्रहण कीजिये ।" "संग' शब्द का अर्थ अगले श्लोक में 'संग' वसनादिकमन्जसा ।' किया है । अतः यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ अथवा वस्त्रादि रहित दिगम्बर है । किन्तु दुर्भाग्य से जैन समाज में कुछ ऐसे लोग हो गए हैं जिन्होंने शिथिलाचार
"भगवन्मदा महादग्न्या गृह्णनाभर पूजिताम् । fretreat प्रतां हित्वा सङ्ग मुदाऽखिलम् ॥। १४९।।
१. वीर, वर्ष ४ ० २०१
२. विष्णु पुराण में है : 'दिगम्बरो मुण्डो वहपत्रधर: ' ( ५- २ )
पद्मपुराण (भूमिखण्ड अध्याय ६६ ) प्रबोधचन्द्रोदयनाटक अंक ३ (दिगम्बर सिद्धान्तः ), पंचतन्त्र: "एकाकी गृहसंत्यक्त पाणिपात्रो दिगम्बरः । " - पंचतन्त्र ।
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