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गोतिका छन्द इमि कूपंथपाक पाक अनेक भव घर, वेष तिरयञ्च हि तनो। पुनि भ्रम्यौबहु परजाय अन्तर, दुःख जलनिधि सम भनो।। यह जानिक मिथ्यात मारग, तजहु सम्पुरण सही। सम्यक्त्व को नित अादरो भवि! जो त्रिजग मुख वांछही ।।१३३।। हैं.........नन्त सुखदाता सुजिनवर, दुखहरण वर वीर हैं। जग अन्त भवको नाश कोनी, बुद्धि-धन मन धीर हैं। बहु धातिया हति मुक्ति प्रिय पति, वीर भक्ति प्रनामियो । सोइ बोर करता होहु मुझको, "नवलशाह" बखानियौ ।।१३४॥
वस्तुतः प्राग में कूद पड़ना, हलाहल (विष) का सेवन करना, समुद्र में डूबकर मृत्यु प्राप्त कर लेना उत्तम है, किन्तु मिथ्यात्व' सहित जीवित रहना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। सिंह आदि हिंसक जीवों को संगति प्राप्त कर लेना तो किन्हीं अशों में ठीक भी है, पर मिथ्यादष्टि जीवों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना तो बड़ा ही भयानक है। कारण हिंसक जीव तो एक जन्म में ही दुख देते हैं, पर मिथ्यात्व का प्रभाव जन्म-जन्मान्तर तक पीछा नहीं छोड़ता। बुद्धिमान पुरुषों का कथन है कि मिथ्यात्व और हिंसादि पापों की तुलना की जावे तो मेरु और राई के समान अन्तर मालम होगा। अतएव यदि कहीं प्राण जाने का भी भय हो तो भव्य जीवों को मिथ्यात्व का सेवन नहीं करना चाहिए । प्रत्यक्ष है कि मरीचि के जीव को मिथ्याल्य के प्रभाव यश केवल क्षणिक सूख की प्राशासे कठिन से कठिन दुःख भोगने पड़े, अतः यदि तुम शास्वत सुम्ब की आकांक्षा रखते तो मिथ्यात्व का परित्याग कर सम्यक्त्व ग्रहण करो।
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