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जीव का लक्षण और उसके भेद जीब का अर्थ है कि--चेतना लक्षणं जीवः ज्ञान दर्शनादि असाधारण चित्त स्वभाव और उसके जो परिणाम प्रादि हैं जानोपयोग और दर्शनोपयोग ऐसे भाव प्राण से हमेशा जीने वाला और पंचेन्द्रिय मन वचन काय प्रायु और स्वासोच्छवास इस प्रकार द्रव्य प्राणों से जीने वाले जीव हैं।
त्रिकाल विषय जीवनानुभाव: जीवः (जीवीति जीवष्यति जीवितपूर्वोवा जीव:)
जोवतीति जीव: त्रिकाल जीवन करने वाले ये जीव हैं। जीव तत्व की सिद्धिको चेतना चैतन्यानुविधायी भाव प्राण और यथाशक्ति दस प्रकार के द्रव्यप्राणों से जीता है । इस प्रकार जीव राशि में सामान्य रूप से दो भेद हैं । एक संसारी और दूसरा मुक्त । संसारी जीव और उसके भेद
आत्मोचित्त कर्मययास प्रात्मनो भावान्रायक्ति संसारः 'परिणामसमूहः प्रारम्भ अनेनसहितम् सारंग संचय तत संसारः । संशरणं संसारः।
इस प्रकार संसार शब्द का सामान्य अर्थ अनेक प्रकार का है। स्वतः संचार करने वाले कर्म के कारण से जन्म जरा मरण के प्राधीन होकर द्रव्य क्षेत्र काल भावभव ऐसे पंच परावर्तनरूप संसार में भ्रमण करने वाले जीव को संसारी जीव कहते हैं।
कर्म और उसके भेद पुद्गल द्रव्य अनुकम के रूप से सम्पूर्ण लोकाकाश में परिपूर्ण भरा हुआ है। कुछ स्कन्द पाहार भाषा-इस प्रकार २३ तरह के वर्ण रूप हैं। कार्माण स्कन्द रूप में रहने वाले इन वर्गणाओं को द्रव्य कर्म से ही बाधा और उसके निमित्त से
-- - -- कमल के समान एक मांस का पिण्ड या टुकड़ा होता है उराको द्रभ्य मन कहते हैं । इस भाव मन को प्राप्त किये हुये जीव के अन्दर ग्रहण और मनन करने की बाक्ति होती है। वे शिक्षण आदि को ग्रहण कर सकते हैं। इन जीवों को सैनी पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। द्रव्य मन से रहित जीवों को मनन करने की शक्ति नहीं रहने वाले जीवों को असनी पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं।
६–अनेक प्रकार से परम्पर टकराना टूट कर गिरना आदि वाधाओं के अधीन होकर अनेक दुःखों को सहने वाले स्थूल स्थावर एकेन्द्रिय जीवों को वादर, वादर स्थूल कहते हैं। और अग्नि पानी आयुवादि बाधानों के प्राधीन न होने वाले घटा सूक्ष्म शरीर वाले जीवों को सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कहते हैं।
७-१. आहार, २.घरीर, ३. इन्द्रिय, ४, उच्छवास निश्वास, ५-भाषा और ६-मन ये छः को पर्याप्ति कहते हैं।
८-२ एकेन्द्रिय, ३ विकलेन्द्रिय, २ पंचेन्द्रिय इन सब सात विमान को पर्याप्तक और अपर्यास्तकों से गुणा करने से १४ विभाग होते हैं।
सब्द-बंध (ये दोनों परस्पर चिपके हुये हैं) सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व संस्थान (आकार) भेद, अन्धकार, छाया, धूप, चन्द्रमा की चांदनी, ये सब पुद्गल द्रव्य के पर्याय हैं। रोग भी पुद्गल है।
TWO ETHERS — Ether, mentioned above, is not matter in the Jaina Viem. Matter has various qualities and relations which these two ether do not possess. It is only the Jain philosopliy that believes in these two substances. They are accompanying causes ('helu') respectively of the motion of moving things that are resting, in the sense of not moving. In each case it is the accompanying cavse without which you can not do,
-J.l. by HERBERT WARREN, Page 13 2. TIME:- Time is not a collection of indivisiblein separable parts, as are the other five substances. Time is called a substance only as a matter of convenience. it is really the modification (Paryaya) of a substance. It is that modification of a thing or being by which we koow the anteriority ar posteriority of it, the oldness or newness. And it is a modification which is common to all the other substances. (Dravyas). Time is really the duration of the states of substances.
J. I. by HERBERT WARREN Page 14