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२. वृष्टि सं० २ की अपेक्षा (ति. प.।५।१६६-१७७), (रा. बा. ।३।३५-१६६।२४), (ह. प. १५१७०२-७२७) । (ति.प) । देवी |
देवी रा. वा. रिशा सं० । देवी काम ।
देवी
ह. पु.
देवी
का
का
काम
चारों दिशाओं
नन्द्यावर्त
पद्ममोतर
सहस्ती
।
स्वस्तिक
सुभद्र श्रीवृक्ष
नील
वर्धमान । अंजनगिरि अभ्यन्तर दिशा में ३२ दे० पूर्वोक्त दृष्टि सं० १ में प्रत्येक दिशा के पाठ कुट
दिग्गजेन्द्र
।
बंडूर्य
रुचका
बिदिशा में । १ प्रदक्षिणा । २
मणिप्रभ
विजया
विजया
-
रूप से
रुचकामा
रत्नप्रभ
वैजयन्ती
-
रत्न
रुचकान्ता
मणिप्रभ
रुचककान्ता
शंखरत्न
जयन्ती
सर्वरत्न
जयन्ती
-
दिशामों में उद्योत करना जातकर्म करने वाली महत्त तरिका
रुचकोत्तमा
रुचकरभा
रुचकोत्तम रत्नोच्चय
दिशाओं में उद्योत करना जातकर्म करने वाली महत्तरिका
अपराजिता
उपरोक्त के ।
चित्रा
कनकचित्रा
अभ्यन्तर भाग | २
में चारों । ३ दिशाओं में । ४ ।
विमल
कनका नित्यालोक शतपद (शतहृदा) । स्वयंप्रभ
कनकचित्रा नित्योद्योत । सौदामिनी
त्रिशिरा
सूत्रमणि
चतुर्थ पृथ्वी में मनक नामक पंचम इन्द्रक का विस्तार ग्यारह लाख आठ हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीसरे भाग प्रमाण है।
१२०००००--१.१६६६९-११०८३३३ ।
चतुर्थ भूमि में बाद नामक छ इन्द्रका के विस्तार का प्रमाण दश लास्त्र सोलह हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के मौन भागों में से दो भाग प्रमाण है।
चौथी पुथ्वी में बलखल (खडखड) नामक सातवें इन्द्रक का विस्तार नौ लाख पच्चीस हजार योजन प्रमाण है।
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