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हीन हैं अथवा किसी दुःख से दुखी है. उन्हें दयापूर्वक भोजन समर्पित करे जीवों को अभयदान दे, जिससे सिंहव्याघ्रादि किसी भी हिंसक जीव का भवन रहे। जो लोग कुष्ट से पीड़ित हैं, काल, पिस, कफादि रोग से दुखी हैं, उन्हें यथायोग्य औषधि प्रदान करें। किन्तु जिनके पास उद्यापन के लिए इतनी सामग्री मौजूद न हो, उन्हें भक्ति करनी चाहिए। और अपनी असमर्थता नहीं समझनी चाहिए। कारण शुद्ध भाव ही पुण्य सम्पादन में सहयोग प्रदान करता है। उन्हें उतना ही फल प्राप्त करने के लिए तीन वर्ष तक और व्रत करना उचित है। आरम्भ में इस व्रत का पालन श्री ऋषभदेव के पुत्र अनन्त वीर ने किया जिसकी कथा यादि पुराण में विस्तार से वर्णित है। मुनिराज की अमृत वाणी सुनकर वहां उपस्थित राजा ने अनेक श्रावक श्राविकाओं के साथ एवं उन तीनों कन्याओं ने भी सन्धि विधान नामक व्रत धारण किये। सत्य है जो भव्य हैं तथा जिनकी कामना मोक्षप्राप्ति की है, ये शुभ कार्य में देर नहीं करते । भवितव्यता के साथ संमारी जीवों की बुद्धि भी तदनुरूप हो जाती है । मुनिराज के उपदेश से उन तीनों कन्याओं ने उद्यापन के साथ लब्धिविधान व्रत किया और श्रावकों के व्रत धारण किये। उन्होंने उत्तम क्षमा आदि दध धर्म तथा शीलत धारण किये। कालान्तर में उन तीनों कन्याओं ने जिन मन्दिर में पहुंच कर मन वचन काय से शुद्धतापूर्वक भगवान की विधिवत पूजा की। इसके पश्चात् श्रायुपुर्ण होने पर उन तीनों कन्याओं ने समाधिमरण धारण किया, अरहन्त देव के वीजाक्षर मंत्रों का स्मरण किया तथा भक्तिपूर्वक उनके चरणों में वे नत हुयीं। मृत्यु के पश्चात् उनका स्त्रीलिंग परिवर्तित हो गया और वे प्रभावशाली देव हो गये उनके शरीर दोन से सुशोभित हुए। उन्हें अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया कि वे चिविधान व्रत के फलस्वरूप स्वयं में देन हुए हैं। वे सदा देवांगनाओं के साथ सुख भोगते थे। उनका शरीर पांच हाथ ऊंचा, उनकी श्रायु दश सागर की तथा वे विक्रिया ऋद्धि से सम्पन्न थे। उनकी मध्यम षटलेश्या थी और तीसरे नरक तक का उन्हें अवधिज्ञान था। वे भगवान सर्वज्ञ देव के चरणों की इस प्रकार सेवा किया करते थे, जिस प्रकार एक भ्रमर सुति कमल पुष्पों पर लिपटा रहता है। साथ ही अनेक देवदेवियां भी उनके चरणों की सेवा किया करती थीं।
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इस ओर राजा महींचन्द्र ने भी संसार की प्रनित्यता इन्द्रियों का सर्वदा दमन कर महा तपश्वरण कथा किया |
समझ कर अंगभूषण मुनिराज से जिन दीक्षा ग्रहण की। वे को जीत कर उन्होंने मूलगुण और उत्तरगुणों को धारण
गीतम स्वामी किस स्थान पर उत्पन्न हुए। उन्होंने किस
भगवान महावीर स्वामी के समवशरण में कहा जाता है प्रकार लब्धि प्राप्त की। वे किस प्रकार गणधर हुए और उन्हें मोक्ष कैसे प्राप्त हुआ । इसे ध्यान देकर श्रवण करे |
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत एक प्रसिद्ध भरतक्षेत्र है। उसमें धर्मात्मा लोगों के निवास करने योग्य मगध नाम का एक देश है। उसी देश में ब्राह्मण नाम का अत्यन्त रमणीक एक नगर है। यहाँ बड़े-बड़े वेदश निवास करते हैं कि तथा वह नगर वेद ध्वनि से सदा गूँजता रहता है। वह नगर धन धान्य से परिपूर्ण है वहाँ के बाजारों की पंक्तियां अत्यन्त मनोहर हैं। अनेक चैत्यालयों से सुशोभित ब्राह्मण नगर बहुपदार्थों से परिपूर्ण हुआ था वहाँ अनेक प्रकार के जलाशय वृक्ष थे। उनमें सब प्रकार के धान्य उत्पन्न होते थे। वहां के मकानों की ऊंची पंक्तियां अपनी अपूर्व विशेषता प्रकट करती थीं। वहां के निवासी मनुष्य भी सदाचारी धीर सौभाग्यशाली तरुण-तरुणियां कीड़ा-रत रहते थे वहां की सुन्दरियां अपनी सुन्दरता में रम्भा को भी मात करतो थीं उसी नगर में शांडिल्य नाम का एक ब्राह्मण रहता था वह विद्याओंों में निपुण और सदाचारी था। दानी तथा तेजस्वी था। उसकी पत्नी का नाम स्थंडिला था। वह सौभाग्यवती पतिव्रता और रति के समान रूपवती थी। केवल यही नहीं, उसका हृदय नम्र और दयालु था। वह मधुर भाषण करने वाली एवं याचकों को दान देने वाली थी। किन्तु उस ब्राह्मण की कसरी नाम की एक दूसरी ब्राह्मणी थी। यह भी सर्वगुणों से सम्पन्न तावा अपने पति को सदा प्रसन्न रखती थी। एक दिन की घटना है। पंडिला अपनी कोमल शय्या पर सोयी हुई थी उसने रात में पुत्र उत्पन्न होने वाले शुभ स्वप्न देखे। उसी दिन एक जड़ा देव स्वर्ग से चलकर स्थंडिला के गर्भ में पाया। गर्भावस्था के बाद स्थंडिला का रूप निखर उठा। वह मोतियों से भरी हुई सीप जैसी सुन्दर दीखने लगी। उस ब्राह्मणी का मुख कुछ श्वेत हो गया बा, मानो पुत्ररूप चन्द्रमा समस्त संसार में प्रकाश फैलाने की सूचना दे रहा है। शरीर में किंचित कृशता श्रा गयी थी । स्तनों के अग्र भाग श्याम हो गये थे मानों से पुत्र के धागमन की सूचना दे रहे हों उस समय स्वंडिला जिनदेव की पूजा में तत्पर रहने लगी, स्थंडिला जैसे इन्द्राणी सदा भगवान की पूजा में वित्त लगाती है। स्वंद शुद्ध चारित्र धारण करने वाले सम्पानी मुनियों को अनेक पापनाशक शुद्ध आहार देती थी । सूर्योदय के समय जिस समय शुभग्रह शुभ रूप से केन्द्र में थे; उस समय; श्री ऋषभदेव की रानी यशस्वती की तरह, स्थंडिला ने मनोहर अंगों के धारक पुत्र को उत्पन्न किया ।
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