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के साथ आपका सम्बन्ध है ही। इसीलिये तीन खण्ड की लक्ष्मी और सुख के स्वामी त्रिपष्ठ के लिये यह कन्या देनी चाहिये, यह कल्याण करने वाली कन्या उसका मन हरण करने वाली हो। त्रिपृष्ठ को कन्या देने से पाप भी समस्त विद्याधरों के स्वामी हो जावंगे इसलिये भगवान् आदिनाथ के द्वारा कही हुई इस बात का निश्चय कर आपको यह अवश्य ही करना चाहिये । इस प्रकार निमित्तानो के वचनों को हृदय में धारण कर रथनपुर नगर के राजा ने बड़े हर्ष से उस निमित्त ज्ञानी की पूजा की। और उसी समय उत्तम लेख और भंट के साथ इन्दु नाम का एक दूत प्रजापति महाराज के पास भेजा। यह त्रिपष्ठ स्वयंप्रभा का पात होगा यह बात प्रजापति महाराज ने जयगुप्त नामक निमित्त ज्ञानी से पहले हो जान ली थी। इसलिये उसने आकाश से उतरते हए विद्याधर राजा के दूत का, पुरपकारण्डक नाम के वन में बड़े उत्सब से स्वागत-सत्कार किया। महाराज उस दूत के साथ अपने राजभवन में प्रविष्टि होकर जब सभागृह में राजसिंहासन पर विराजमान हए तब मंत्री ने दूत के द्वारा लाई हुई भेट समर्पित की। राजा ने उस भंट को बड़े प्रेम से देखकर अपना अनुराग प्रकट किया और दूत को संतुष्ट करते हुए कहा कि हम तो इस भेंट से ही सन्तुष्ट हो गये । तदनन्तर दूत ने सन्देश सुनाया कि यह श्रीमान त्रिगष्ठ समस्त कुमारों में श्रेष्ठ है अतः उन्हें लक्ष्मी के समान स्वयंप्रभा नाम की इस कन्या से आज सुशोभित किया जावे । इस यथार्थ संदेश को सुनकर प्रजापति महाराज वा हर्ष दुगुना हो गया । वे मस्तक पर भुजा रखते हुए बोले कि जब विद्याधरों के राजा स्वयं ही अपने जमाई का यह तथा अन्य महोत्सव करने के लिए चिन्तित हैं तब हग लोग क्या चीज हैं।
इस प्रकार उस समय आये हुए दूत को महाराज प्रजापति ने कार्य की सिद्धि से प्रसन्न किया, उसका सम्मान किया और बदले की भेंट देकर शीघ्र ही बिदा कर दिया । वह दूत भी शीघ्र ही जाकर रथनपुर नगर के राजा के पास पहुंचा और प्रणाम कर उसने कल्याणकारी कार्य सिद्ध होने की खबर दी। यह सुनकर विद्याधरों का राजा बहुत भारी हर्ष से प्रेरित हमा और सोचने लगा कि इस कार्य में विलम्ब करना योग्य नहीं है यह विचार कर वह कन्या सहित बड़े ठाट-बाट से पोदनपुर पहुंचा। उस समय उस नगर में जगह-जगह तोरण बांधे गये थे, चन्दन का छिड़काव किया था, सब जगह उत्सुकता ही उत्सुकता दिखाई दे रही थी, और पताकानों की पंक्ति रूप चंचल भुजाओं से वह ऐसा जान पड़ता था मानो बुला ही रहा हो । महाराज प्रजापति ने अपनी सम्पत्ति के अनुसार उसकी अगवानी की। इस प्रकार उसने बड़े हर्ष से नगर में प्रवेश किया। प्रबंश करने के बाद महाराज प्रजापति ने उसे स्वयं ही योग्य स्थान पर ठहराया और पाहुने के योग्य उसका सत्कार किया । इस सत्कार से उसका हृदय तथा मुख दोनों ही प्रसन्न हो गये। विवाह के योग्य सामग्री से उसने समस्त पृथ्वी तल को सन्तुष्ट किया और दूसरी प्रभा के समान अपनी स्वयंप्रभा नाम की पुत्री त्रिपुष्ठ के लिये देकर सिद्ध करने के लिये सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी नाम को दो विद्याएं दी। इस तरह वे सब मिलकर सुखरूपी सन्द्र में गोता लगाने लगे। इधर अश्वग्रीव प्रतिनारायण के नगर में विनाश को सूचित करने वाले तीन प्रकार के उत्पात बहुत शीघ्र साथ ही साथ होने लगे। जिस प्रकार - तीसरे काल के अन्त में पल्य का पाठवां भाग बाकी रहने पर नई-नई बातों को देखकर भोगभूमि के लोग भयभीत होते हैं उसी प्रकार उन अभूतपूर्व उत्पातों को देखकर वहां के मनुष्य सहसा भयभीत होने लगे।
अश्वनीव भी घबड़ा गया। उसने सलाह कर एकान्त में शतबिन्दु नामक निमित्तज्ञानी से यह क्या है ? इन शब्दों द्वारा उनका फल पुछा । शतबिन्द ने कहा कि जिसने सिन्ध देश में पराक्रमी सिंह मारा है, जिसने तुम्हारे प्रति भेजी हुई भेंट जबर्दस्ती छीन ली और रथनपुर नगर के राजा ज्वलनजटी ने जिसके लिये आपके योग्य स्त्रीरत्न दे दिया है उससे प्रापको क्षोभ होगा। ये सब उत्पात उसी के सूचक हैं। तुम इसका प्रतिकार करो। इस प्रकार निमित्त ज्ञानी के द्वारा कही बात को हृदय में रखकर अश्वग्रीव अपने मंत्रियों से कहने लगा कि प्रात्मज्ञानी मनुष्य शत्रु और रोग को उत्पन्न होते ही नष्ट कर देते हैं परन्तु हमने व्यर्थ ही अंहकारी रहकर यह बात भुला दी। अब भी यह दुष्ट आप लोगों के द्वारा विष के अंकुर के समान शीघ्र ही छेदन कर देने के योग्य है। उन मंत्रियों ने भी गुप्त रूप से भेजे हुए दूतों के द्वारा उन सबकी खोज लगा ली पीर निमित्त ज्ञानी ने जो सिहवध ग्रादि की बातें कही थी उन सबका पता चलाकर निश्चय कर लिया कि इस पृथ्वी पर
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