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जाशक्ति कछु मोर वसंत विउ मास वर्ष जंत ११ कर्म निर्जरा व्रत इक बास, महिमा प्रति चौदह उपवास ।। ११६।। उज्वल पनि पेट मास शुक्ल पंचमी को उपवास ।।१२०॥ (म) कावा पंचमी नजर अकास, भादों सुदि पंचमि उपवास ॥१२१॥ चन्दन षष्ठी भादों शुक्ल, चंदन चचि सु भोजन मुक्त ॥१२२॥ कुवार सप्तमी वाही दिना खजुरी पूजा ।।१२३३ । मन चिती आटे वह थान, मन चित्ते भोजन परवान ॥ १२४॥
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कंजिक व्रत जल भात अहार, चोखड दिन पारिवार व्रत रोहिणि कर प्रोषध गाढ़, एक वरष थवि प्रथम श्रषाढ़ श्रुति पंचमि पड़िपात्र विशाल जेठी पंचमि उपपान कृष्ण पंचमी ते ही वर्ष कृष्ण पक्ष पंचम को पर्व पंच पौरिया वा दिन जान, घर पचीस वाटं पकवान (निर) दोष सप्त भादों सुदी धर्म फूलन मंडप पूजा कर्म (नि) शल्य अष्टमी भाव सुदी, प्रोषध कर शयनासन जुदी श्रम सुगन्धदशमी व्रत जान, भादौं सुदि दशमी को मान | गन्ध चर्च देश भेद य हरै, पीछे भोजन आपून घरं ॥ १२५ ॥ पुनि सौभाग्य दशमि व्रत ठान, दश सुहागनों भोजन दान । दर्शामनि मानी घृत अवधार, यादर जुत परघर आहार || १२६ ।। चमक दर्शन और चमकाइ, जो भोजन महि हो मंत्राह । छह दर्शाम व्रत इहि परकार, छह सुपात्र को देह अहार ॥११२७|| तम्बोल दयानि व्रत को यह ओर, दश सुपात्र को देइ तमोर पान दर्शाम वीरा व पाम, दश धावक दे भोजन ठान ||१२६
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जिस प्रकार सम्पूर्ण पापों के दूर हो जाने से हृदय निर्मल हो जाता है उसी प्रकार जहां प्रभु का सभा मण्डप था वहां सम्पूर्ण दिशाएं आकाश के समान एकदम स्वच्छ हो जाया करती थीं मानों उनके भी पाप पुंज घुल गये हों। इनकी श्राज्ञा से चारों जाति के देव प्रभुकी यात्रा करने में सम्मिलित होने के लिए परस्पर एक दूसरे को देखकर बुलाया करते थे। उन महामहिमा साली प्रभुके धागे धागे प्रभापूर्ण रत्नों से सुशोभित सहस्रों अरों वाला पर्म चल रहा था। वह अपनी प्रखर ज्योति से महा अन्धकार के उदय को विदीर्ण करता हुआ बढ़ रहा था और देव मण्डली उसे घेरे हुए थी दर्पण आदि श्राठ मंगल द्रव्यों को देव अपने साथ लिये हुए थे यह सब महान् चौदह अतिशय भक्ति के द्वारा देवोंने किया। दिव्य चौतीस अतिशय, ग्राठ प्रातिहार्य, चार अनन्त चतुष्टय तथा अन्य अपरिमेय उत्तमोत्तम गुणों से संयुक्त प्रभु अनेकानेक देश वन, पर्वत नगर और ग्रामों में बिहार करते हुए राज्यगृह नामकी नगरी के बाहर विपुलाल पर्वत पर पहुंचे। वे महंत महापोर प्रभु धर्मोपदेश रूपी अमृत से अनेकानेक भव्य जीवको सन्तुष्ट करने वाले थे, उन्हें वस्तु स्वरूप का वास्तविक रहस्य बताकर मोक्ष के परिष्कृत पथ पर ले जाने वाले थे, मिथ्याज्ञान रूपी अत्यन्त पने सरकार से मान्छन यतः भवोत्पादक मार्गको नष्टकर बगने वचन रूपी तीक्ष्ण प्रहार से पालमय रत्नमय स्वरूप मोक्षके मार्गको प्रकट करनेवाले और कल्पवृक्षकी तरह सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, तप और दीक्षा रूपी चिन्तामणि रत्नोंके दाता तथा सम्पूर्ण संघ और देव वृन्द से परिवेष्ठित थे ।
इसके बाद जब राजगृही नगरी के अधिपति महाराज थेणिक ने बन के माली के मुख से प्रभु के शुभागमन का समाचार सुना तब यह शीघ्र ही भक्ति होकर स्त्री, पुत्र बन्धुन्ध और महा सम्पदा को अपने साथ लेकर प्रसन्नतापूर्वक उस विला चल पर्वत पर पहुंचा जहां कि प्रभु पाये हुए थे। वहां जाकर उसने प्रभुकी तीन परिक्रमा दी और मन, वचन एव कायदे पवित्र होकर अजा-पूर्वक प्रणाम किमा पौर जल इत्यादि अष्टद्रव्यों से जिनेन्द्र प्रभु के चरणारविन्द की पूजाकी और भक्ति बिल होकर
मन्दिर बनवाकर उसमें भ० महावीर की स्वर्ण-प्रतिमा विराजमान की थी। वे जैनधर्म को भलीभांति पालने वाले आदर्श बालक थे। जनमुनियों की सेवा के लिये तो इतने प्रसिद्ध थे कि इस लोक में तो क्या परलोक तक में उनकी धूम थी। स्वर्ग में देवताओं तक ने परोक्ष करके उनको बड़ी प्रशंसा की है।
भ० महावीर का समवशरण उनकी नगरी में आया तो उन्होंने बड़े शाही ठाट-बाट से भगवान का स्वागत किया और परिवार सहित उनकी बन्दना को गये। वीर उपदेश से प्रभावित होकर जैन साधु होने के लिये अपने पुत्र को राजतिलक करने लगे तो उसने यह कहकर इन्कार कर दिया कि राजसुख तो क्षणिक है, मुझे भी अविनाशी सुखों के जुटाने की आज्ञा देदो मजबूर होकर राज्य अपने भांजे केसीकुमार को दिया और वे दोनों भ० महावीर के निकट जैन साथ हो गये। महारानी प्रभावती भो चन्दना जी से दीक्षा लेकर जैन साध्वी हो, वौर संघ में शामिल हो गई ।
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