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श्रीमद्भादिवर्धमानान्तेभ्यो नमः )
फिर चित्यो मन मुनि गंभीर, विद्यावाद उधारन धीर। मुक्ति मुक्ति को है प्रभिराम, सिद्धिन कहिये तानाम ||४७२ ॥ सिद्धि' इति सिद्धि चक्र मन्त्र )
महावीर सुख उदभव जान विद्या कल्पवृक्षको मान वरन नसके नाम फल कोय, जयपि श्रतको पाठी होय ॥४७३।। विद्या जपे निरन्तर सदा, यामें अन्तर होय न कदा | अणिमा आदि श्रष्टसिधि धनी, श्रुतसागर पारगबहु गनी ||४७४ || तीन कालको दरसी जान, सकल तत्वको पूरन ज्ञान सिंह आदि जे प्राणी क्रूर रूप से रहे हजुर ४७५॥ क्ले जिण पारिस्से स्वाहा । ॐ श्री स्वई नमो नमोऽहंताणं हीं नमः ।) (इति तसाक्षर विद्यामंत्र । )
ॐ जोनोम तच्चेभूवेश
नदिस्से को
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करि gearer को मंचान, श्रुतसागर
मंत्राक्षर गुणवान इनको ध्यान करें मुनिराय सो सराग ध्यानी कहि वाय ॥४७६ ॥
ध्यान करत पावे निज वस्थ, यातं कहिये ध्यान पदस्थ । जंत्रादिक को पुजन जोय, ध्यान पदस्थ नहीं पुन होय ॥४७७॥
दोहा
अष्टसिद्धि नवनिधि सदन, मन निशेधके गेह प्रणव मंत्र परिमाको ध्यान (ॐ) दोइज दोय वरण मंत्रान
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बरनी ध्यान पर यह सो तिथिवार गनेह ||४७८ ॥ ही )
मंत्रनाहूत वीजह जान (डीकार) ची
पंचाक्षर पाचें को सोय.. ( णमो सिद्धाणं ) छटको पडक्षरी श्रवलोय (ॐ सिद्धेम्यो नमः) सातेंको सप्ताक्षर र ||४८०|| (णमो अरिहंताणं) याको टार सर्वे ॥४७२|| ॐ णमो परहंताण) नवमी मंत्र नवाक्षरध्याव (ॐ ह्रीं महं नमो जनानाम् ) दशमी दश अक्षर लो लाय । (चत्तारि मंगलपद नमः) महावीर्ज एकादश श्रायॐ ॐ ह्रीं हंस स्त्री हंस ह्रीं ॐ ॐ द्वादश धोजाक्षर मग वाय ॥४१॥ ॐ हा ह्रींही
चतुर वरन पठि ज्ञान (सिद्धि ॥४०॥
असि या उसा नमः । तेरह त्रोदश प्रक्षर मंत्र सिद्ध सयोग केवली स्वाहा ) चौदशि चतुरंशावर तंत्र (श्रीमद्वपादिवर्धमानान्तेभ्यो नमः) पूरणमासी षोडश वर्ष (ह्रो नभमण्डलवते नाले चन्द्ररेखा नमः)
विचार एवं चारित्रादि धर्म कार्योंसे एक दम उपेक्षित और पथभ्रष्ट बना देता है ये नितान्त उन्मत्त हो उठते हैं। जिस प्रकार कारागारमे हाथ पांवों में बंधी हुई लौह शृङ्खला (बेदी) कंदी को बाहर जा सकने वाला उपस्थित कर देती है उसी प्रकार प्रायु कर्म कामरूपी कारागारमें बन्द जोग रूपी कैदीको कायके बाहर निकलने से सदेव के रहता है। वह कायम ही जीवोंको दुःख शोकादि नाना प्रकारकी आपदाएं भोगने के लिये बाध्य करता है। नाम कर्म चित्रकार के समानजीयोके धनेक रूप बनाया करता है। कभी खिताब कभी सिंह, कभी हाथी, कभी मनुष्य और कभी देव को प्रकारकी प्राकृति प्रदान करना नाम कर्मका ही कार्य है । गोत्रकर्म कुम्हारकी तरह कभी सर्व श्रेष्ठ गोत्र (कुल) और कभी प्रति निन्दनीय गोत्र प्रदान कर देता है। इसी तरह
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