________________
अथ बाईस परीषह वर्णन
सवैया इकतीसा क्षुधा तृषा शीत उष्ण देशमशक मग्नार ति स्त्री चरजा निषद्य शय्या. क्रोश कहिये। बंधन याचन अलाभ रोग लण स्पर्य मल सत्कार पुरस्कार प्रज्ञा ज्ञान सहिये। प्रदर्शन युक्त सब बाईस परीपह जा-न, ताके भेद भिन्न भिन्न जथाशक्ति लहिये। मुनिके शरीर आय अति ही कलेश दाय, क्षमाभाव सो विलाय मोक्षपंथ गहिये ।।२९२ ।।
अतुलनीय पराक्रमशाली महावीर प्रभु ने भूख प्यास प्रादि स्वाभाविक रोग से उत्पन्न होने वाले सम्पुर्ण कठिन परीषहों एवं उनके अत्युन उपद्रवों को अपनी विलक्षण शक्ति के प्रभावसे जीत लिया और उत्तम ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रतीचार रहित एवं भावना सहित पंच महाब्रतों का पालन किया। पांच समिति एवं तीन गुप्ति इन पाठ प्रवचन माताओंका नित्यशः पालन करते एवं इनके द्वारा कर्म-पलिको नष्ट करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। वे महावीर प्रभु श्रेष्ठ निवेदक शील थे इसलिए निरालस्य
१. बाईस परीषहजय A real Conqueror is the man that having withstood all pains and sorrows bas got over them, and take with him high up, atove all wordly miserics, pure and unsoiled his most precious treasure-Soul."..-Dr. Albert Poggi-Mahavira's Atars Jiwan. P. 16. - जैने ज्ञानी मनुष्य कर्ज की अदायगी में अपनी जिम्मेदारी में कमी जानकर हर्ष मानता है वैसे ही थी वर्धमान महावीर दुःखों और उपसगों को अपने पिछले पाप कमो का फल जान कर उनकी निर्जरा के लिये २२ प्रकार की परिषह विना किसी भय खेद तयो चिन्ता के सलन करते थे:
१. भूख परोषह--एक दिन भी भोजन न मिले तो हम व्याकुल हो जाते हैं। परन्तु श्री वर्तमान महाबीर ने बिना भोजन किये महीनों तक कठोर तप किया। आहार के निमित्त नगरी में गये, विधिपूर्वक शुद्ध आहार अन्तराय रहित न मिला तो बिना आहार किये वापस लौट आये
और बिना किसी वेद के ध्यान में मग्न हो गये। चार पांच रोजके बाद फिर आहार को उडे फिर भी विधि न मिलने पर बिना आहार वापस आकर फिर ध्यान में लीन हो गये। इस प्रकार छ: छ: महीने पर आहार न मिलने पर वे इस को अन्तरायकर्म का फल जान कर कोई शोक न करते थे।
२. प्यास की परीषह-गगियों के दिन, सूरज की किरणों से तपते हुए पहाड़ों पर तप करने के कारण प्यास से मुंह सूख रहा हो, तो भो मांगना नहीं, आहार कराने वाले ने आहार के साथ जिना मागे शुद्ध जल दे दिया तो ग्रहण कर लिया वरन् वेदनीय कर्म का फल जान कर छ। छ: महीने तक पानी न मिलने पर भी कोई खेद न करते थे।
३. सर्दी की परोषह--भवानक सर्दी पड़ रही हो, हम अंगीठी जलाकर, किवाड़ बन्द करके लिहाफ आदि ओढ़कर भी सर्दी-सर्दी पुकारते हैं । पोह-माह की ऐसी अन्धेरी रात्रियों में नदियों के किनारे टण्डी हवा में बईमान महाबीर नग्नशरीर तप में लीन रहते थे। और कड़ाके की सर्दी को वेदनीय कर्म का फल जान कर सरल स्वभाव से सहन करते थे।
४. गर्मो को परीषह-गर्म लू चल रही हो, जमीन अंगारे के समान तप रही हो, दरिया का पानी तक सूख गया हो, हम ठंडे तहखानों में पखों के नीचे खसखस की दृट्टियों में बर्फ के ठण्डे और मीठे शर्बत पी कर भी गर्मी-गर्मी चिल्लाते हों, उस समय भी श्री बर्द्धमान सूरज की तेज किरणों में आग के समान नपते हुये पर्वतों की 'बोटियों पर नग्न शरीर बिना आहार पानी के चरित्र मोहिनीय कर्म को नष्ट करने के हेतु महापौर तप करते थे।
__५. डांस व मच्छर आदि की परीषह-जहाँ म मच्छरों तक से बचने के लिए मशहरी लगाकर जालीदार कमरों में सोते हैं, यदि खटमल, मक्वी, मन्दर, कोड़ी तक काट ले तो हाहाकार करके पृथ्वी सिर पर उठा लेते हैं, वहाँ वर्द्धमान महावीर सांप, विन्यू, कानखजरे, शेर, भगेरे तक की परवाह न करके भयानक बन में अकेले तप करते थे । महाविष भसे सों ने काटा, शिकारी कुत्तों ने शरीर को नोच दिया, शेर, मस्त हाथी आदि महाभ मानक पशुओं ने दिल खोल कर सताया, परन्तु वेदनीय कर्म का फल जान कर महावीर स्वामी ससस्त उपसर्ग को सहन करके ध्यान में लीन रहते थे।
६. नानता परीषह-जहाँ नष्ट होने वाले शरीर की शोभा तथा विकारों की चंचलता को छिपाने के लिए हम अनेक प्रकार के सुन्दर
४२३