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चौपाई अब तुम सुनौ ऋद्धि बलसार, मन वच काय विविध परकार । भिन्न भिन्न तिनके गुण कहो, जैसे जिन शासन में लद्यौ ।।२४५।। श्रुत आवरणी कर्म प्रधान, ताके क्षय उपशम तै जान । अन्तमूहरत विष समर्थ, द्वादशांग वाणी को अर्थ ।।२४६॥ तिनको मन में कर विलास, यह कहिये मनवल परकास । द्वादशांग बाणो अाधन, कहत महासुख उपज चैन ।।२४७।। तिनको कष्ट न होय लगार, वचन अतुल बल के अनुसार । वाणी पड़त वेह श्रम नाहीं, पढ़े मु अन्त मुहरत माहीं ॥२४॥ काय अखंडित बल को कर, अतुल प्रखंड महावल धरै । सोहै जिनको सुभग शरीर, काय अंग जानौ वर वीर ॥२४६।।
पोहा यह बल ऋद्धि गंभीर गुण, प्रगट बखानी देव । उदय होय तप योग में, जिनवाणी लहि मेव ॥२५०।।
इति वलऋद्धिवर्णन
पद्धडि छन्द
अब सुनह भव्य तप ऋद्धि सार, तामें गुण वरनौं सप्त धार । ते घोर महत उग्रह अनन्त, अतिदीप्त तप्त योरह गुनन्त ।।२५१॥ पुन ब्रह्म धोर सप्तम बखान,अव तिनकै गुण सुन भविसुजान । नव भूमि समान जु जहाँ होय, जोगासन रुचि सी करकोय ॥२५२॥
पद्धड़ि छन्द तहं सहहिं उपद्रव कठिन अंग, याही सो कहिये घोर अंग । सिंह बिक्रीडन व्रत ग्रादि नाम, अष्टोत्तर शत झमक्रम वखान ।।२५३॥ सो करें उपास जु सदा काल, अरु मौन सहित अंतराय पाल । जो या विधिसौं तप तपहिं त्रास, सो महत अंग जानौ प्रकाश ।।२५४॥ पुन वेद काय वसु वास मास, यह आदि करहि बहुते उपास । निर्वाह तहां बहु जोग रूड़, यह उग्र अंग को गुण अगूढ़ ॥२५॥ कर घोर वीर तप बहुत भांति, तिन घटै न कबहूं अंग कांति। उपजै नहि दुर्गध मुनि शरीर, यह दीप्त अंग को गुण गहीर ।।२५६।। सो कर प्रहार नहि है निहार, ज्यों तपस लोह पर नीरडार । सोखै सुनीर नहि सहैं पीर, वह तप्त अंग जानी जु वीर ॥२५७॥ ते प्रतीचार विन मुनि रहाय, वह घोर गुण तप मुनि कहाय । दुख कामादिक मुनि नहि धरेय, सो घोर ब्रह्मचारी कहेय ।।२५८।।
दोहा तप जु ऋद्ध के सात गुण, अभ्यास मुनिराज । अनुक्रम तातै जानिये, केवल ज्ञान समाज ॥२५६।।
इति तप ऋद्धि वर्णन
दोहा षटगुण वरनी ऋद्ध रस, ग्रासन विष विष दष्ट । घत पय मधु अमृत सबहि, जुदे जुदे कर तिष्ठ ॥२६॥
खीर का आहार ग्रहण किया और इस पाहार ग्रहण के उत्तम फल से राजा को अनुकम्पित एवं उसके घर को पवित्र कर पुन: बन को चले गये। राजाने भी अपने जन्म गृह एवं धनको अप्रत्याशित पुण्यकारी समझा और वे अपना अहोभाग्य समझने लगे। इस धेष्ठ दानके मन, वचन एवं काय द्वारा अनुमोदन करनेके कारण अर्थात् दाता एवं पात्रकी प्रशंसा करके बहुत लोगोंने दाताके समान ही उत्तम पुण्य का उपार्जन कर लिया।
उधर जिनेश्वर महावीर प्रभु नाना देश के अनेक नगर, ग्राम एवं बन उपवनोंमें वाधुकी तरह स्वच्छ मति से विचरने लगे। वे ममता मोह से रहित थे और योग ध्यानादि की सिद्धि के लिये सिंह के समान निर्भय होकर रात्रिके समय में भी पर्वतकी अंधेरी गुफामें श्मशान में और एकदम भयंकर निर्जन वन में रहते थे। क्रमशः छठे पाठव उववाससे प्रारम्भ कर छ: मास तकके
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