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लोक का वर्णन
लोक लोक प्राकाश माहिं थिर निराधार जानों । पुरुष रूप कर कटी भये षट् द्रव्यनसों मानो । इसका कोई न करता हरता अमित धनादि है। जीवपुद्गल नावे या में, कर्म उपाधी है। पाप पुण्य सौ जीव जगत में, नित सुख दुख भरता । अपनी करनी आप भरे, सिर थॉरन के धरता । मोह कर्म को नाश मेटकर, सब जग की श्रासा । निजपद में घिर होय, लोक के सीस करो बासा ||
5× ÷ १×१० रा० : ३:२×१×० =
०रा०
योग - १३+३+३+5+2+3+4+ई+३ = 45, 4 x २ = ३७६ = ६३ घनराजु |
उपर्युक्त घनफल को दुगुणा करने पर दोनों (पूर्व-पश्चिम ) तरफ का कुल घनफल त्रेसठ घनराजु प्रमाण होता है। इसमें सब अर्थात् पूर्ण तक राजु प्रमाण विस्तार वाले समस्त ( ११ ) क्षेत्रों का घनफल जो एक सौ तेतीस घनराजु है, उसे जोड़ देने पर चार कम दो सौ अर्थात् एक सौ छियानवे धनराजु प्रमाण कुल अधोलोक का घनफल होता हैं।
६६÷१३३ = १६६ धनराजु ।
लोक के नीचे व ऊपर मुख का विस्तार एक एक राजु, भूमि का विस्तार पांच राजु और ऊंचाई ( मुख से भूमि तक ) जग श्रेणी के अर्द्ध भाग अर्थात् साढ़े तीन राजु मात्र है ।
ऊपर नीचे १, भूमिभूमि से नीचे ३३
प १३ राजु
भूमि में से मुख के प्रमाण को घटाकर शेष में ऊंचाई का
भाग देने पर जो लब्ध आये, उतना प्रत्येक राजु पर मुख की अपेक्षा वृद्धि और भूमि की अपेक्षा हानि का प्रयास होता है। वह प्रमाण सात से विभक्त याठ अंकमात्र अर्थात् आठ बटे सात होता है ।
१.५-१-४४
प्रत्येक राजपुर क्षय और वृद्धि का प्रमाण
भूमि १. उस
और वृद्धि के प्रभास को इच्छानुसार अपनी-अपनी ऊंचाई से गुणा करने पर जो कुछ प्राप्त हो उसे भूमि में से कम करने अथवा मुख में जोड़ देने पर विवक्षित स्थान में व्यास का प्रमाण निकलता है।
उदाहरण – सनत्कुमार माहेन्द्र कल्प का विस्तार
ऊँचाई राजु ३, (३) ११४ राजु । अगवा भूमि
की सीचाई रा ६ २ (१×3) 11४3 रा
श्रेणी को आठ से गुणा करके उसमें उन्नचास का भाग देने पर जो लब्ध श्रावे, उतना ऊर्ध्वं लोक के व्यास की वृद्धि और हानि
प्रमाण है ।
७X८-५६, ५६९४६: 5 क्ष० वृ० का प्रमाण ।
के सातवें भाग को क्रम से दश स्थानों में रखकर उसको यात उन्नीस एकतीस ती दक्तीस सत्ताईस ईसी फड और साल से गुणा करने पर ऊपर के क्षेत्रों का व्यास निकलता है ।
दश उपरिम क्षेत्रों के अधोभाग में विस्तार का क्रम
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