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उत्कृष्ट पाताल
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जल माग
३. इसके अभ्यन्तर व बाह्य भाग में लवणोदवत दिशा, विदिशा, अन्तरदिशा ब पर्वतों के प्रणिधि भाग में २४, २४ अन्तीप स्थित हैं। वे दिशा-विदिशा आदि वाले द्वीप क्रम से तट से ५००,६५०, ५५० च ६५० योजन के अन्तर से स्थित हैं तथा २००, १००, ५०, ५० योजन है। मतान्तर से इनका अन्तराल क्रम से ५००, ५५०, ६०० व ६५० है तथा विस्तार लवणोद वालों की अपेक्षा दुना अर्थात २००, १००० व ५० योजन है।
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उपवन व जल
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पवन भाग
४. पुष्कर द्वीप
१. कालोद समुद्र को घेरकर १६००,००० यो० के विस्तार
युक्त पुष्कर द्वीप स्थित है। इसके बीचोंबीच स्थित कुण्डलाकार मानुषोत्तर पर्वत के कारण इस द्वीप के दो अर्ध भाग हो गये हैं, एक अभ्यन्तर और दूसरा बाह्य । अभ्यन्तर भाग में मनुष्यों की स्थिति है पर मानुषोत्तर पर्वत को उल्लंघकर बाह्य भाग में जाने को उनकी सामर्थ्य नहीं है । अभ्यन्तर धातको खण्डवत् ही दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनके कारण यह पूर्व व पश्चिम के दो भागों में विभक्त हो जाता है। दोनों भागों में घातकी खण्डवत रचना है। धातकी खण्ड के समान यहां ये सब कुलगिरि तो पहिये के अरोंवत समान विस्तार बाले और क्षेत्र उनके मध्य छिद्रों में हीनाधिक विस्तार वाले हैं। दक्षिण इप्वाकार के दोनों तरफ दो भरत क्षेत्र और इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत क्षेत्र हैं। क्षेत्रों ? पर्वतों, आदि के नाम जम्बद पवन है। दोनों मेरुयों का वर्णन धातकी मेरुपवत हैं। मानुपोत्तर पर्वत का अभ्यन्तर भाग दीवार की भांति सीधा है और बाह्य भाग में नीचे से ऊपर तक कम से घटता रहता है। भरतादि क्षेत्रों की १४ नदियों के गुजरने के लिए इसके मूल में १४ गुफाएं हैं। इस पर्वत के ऊपर २२ कट हैं। तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में तीन तीन कूट हैं। पूर्वी विदिशाओं में दो-दो और पश्चिम विदिशाओं में एक-एक कट हैं। इन कटों को अग्रभूमि में अर्थात् मनुप्य लोक की तरफ चारों दिशाओं में ४ सिद्धायतन कूट हैं। सिद्धायतन कूट पर जिन भवन हैं और शेष पर सपरिवार व्यन्तर देव रहते हैं। मतान्तर की अपेक्षा नैऋत्य व वायव्य दिशा वाले एक एक कट नहीं है। इस प्रकार कुल २० ऋट है। इसके ४ कुरुओं के मध्य जम्बू वृक्षवत् सपरिवार ४ पुष्कर वृक्ष हैं जिनका सम्पूर्ण कयन जम्बूद्वीप के जम्बू व शाल्मली वृक्षवत है । पुष्कराध द्वीप में पर्वत क्षेत्रादि का प्रमाण बिल्कुल धातकी वण्डवत जानना।
अनेक स्थानों में समान रूप से होने वाली वृद्धि अथवा हानि के प्रमाण को चम या उत्तर तथा जिन स्थानों में समान रूप से वृद्धि या हानि हुआ करती है, उन्हें गच्छ अथवा पद भी कहते हैं।
दो सौ तेरान, दो सो पाँच, एक सौ तेतीस, सतहतर, सैनीस और तेरह, यह कम से, रत्न प्रभादिक छह पृथ्विया में आदि का प्रमाण है।
आदि का प्रमाण-र, प्र. २६२, श.प्र. २०५, वा. प्र. १३३, पं०प्र०७७ प. प्र. ३७, त, प्र. १३ । रल प्रभादिक पृथ्वियों में कम से तेरह, स्मारह, नौ, सात, पाँच और तीन गच्छ है उत्तर या चय सब जगह आठ है। गच्छ का प्रमाण-र. प्र. १३, श.प्र. ११, ब, प्र. ६, पं० प्र. ७. ५. प्र. ५, त. प्र. ३ । सर्वत्र उत्तर ८ ।
इक्छा से हीन गन्द्र को चय से गुणा करके उसमे एक कम इच्छा मुणित चय को जोड़कर प्राप्त हुए गीग फल में दुगुणे मुख को जोड़ देने के पश्चात् उसको गच्छ के अर्ध भाम रो गुणा करने पर मंतित धन का प्रमाण आता है।
उदाहरण (१) (१३-१)xx(१-.१४८)-(२६३४२)४५ १२४८ : .: ५९६ - १३:-- ६०२४. ६८२x १३=४४३३ प्रथम पृथ्वी का संकलित धन ।
(२) (११-२)xc+(२–१४८) (२०५४२)xi1=txf-2-|-४१०४५३ २६५५ द्वि. पु. का सं. वन ।