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अचेलक अवस्था का निरूपण करके अगाड़ी क्रमशः तीन वस्त्रधारी, दो बस्त्रधारी और एक वस्त्रधारी या नग्न साधु का रूप
और उसका कर्तव्य प्रतिपादित किया गया है। एक वस्त्रधारी और नग्न मनि को उसने एक ही कोटि में रखकर प्राकृत अनियमितता प्रगट की है। इनके उपदेश क्रम से यह स्पष्ट है कि वे वस्त्र को त्याग करना आवश्यक समझते थे और यह है भी ठीक, क्योंकि यदि वस्त्रधारी अवस्था से मुक्ति लाभ हो सकती तो कठिन नग्न दशा का प्रतिपादन करना वृथा ठहरता है। इसीलिए वेताम्बर शास्त्रों में वस्त्रधारी साधनों को ऐसे साधु बतलाये हैं जो सांसारिक बन्धनों से छुटने के लिए प्रोत्साहित हो रहे हैं। और एक वस्त्रधारी साधु को नग्नभेष धारण करने का भी परामर्श दिया गया है। दिगंबर पाम्नाय में वस्त्रधारी साधु उदासोन धावक माने गये हैं और उत्कृष्ट थावक क्षुल्लक ऐलक कहलाते हैं। श्वे० के उत्तराध्ययन सूत्र में भी क्षुल्लक को लक्ष्य कर एक व्याख्यान लिखा गया है । अतएव यह शब्द वहाँ भी उदासीन उत्कृष्ट श्रावक के लिए व्यवहृत हुआ प्रतीत होता है। ऐशी दशा में यह स्पष्ट है कि श्वे. आचार्य भी मुनि के लिए नग्न अवस्था आवश्यक समझते हैं और वही सर्वोत्कृष्ट क्रिया है। तथापि तीर्थकर भगवान का जीवन सर्वोत्कृष्ट होता है। इसलिये उनके द्वारा सर्वोत्कृष्ट क्रिया का पालन और प्रचार होना परम युक्तियुक्त और आवश्यक है। इसीलिए अन्तत: श्वे० प्राचार्य को भी भगवान महावीर के विषय में कहना पड़ा है कि उन (भगवान्) के तीन नाम इस प्रकार ज्ञात हैं अर्थात् उनके माता-पिता ने उनका नाम वर्द्धमान रक्खा था, क्योंकि वे रागद्वेष से रहित थे, वे श्रमण इसलिए कहे जाते थे कि उन्होंने भयानक उपसर्ग और कष्ट सहन किये थे, उत्तम नग्न अवस्था का अभ्यास किया था, और सांसारिक दुःखों को सहन किया, और पूज्यनीय श्रमण महावीर, वे देवों द्वारा कहे गये थे।
इसी प्रकार श्वेताम्बर टीकाकारों के कथन का अभिप्राय है। उन्होंने उक्त वर्णन का भाव जिनकल्पी और स्थिविरकल्पी प्रभेद में जो लिया है, वह भी हमारे उक्त कथन की पुष्टि करता है। जिनकल्पी के भाव यही हो सकते हैं कि जिनकल्प के और स्थिविरकल्पी के इसी तरह स्थिविरकल्प के समझना चाहिए, और यह भाव श्वे. मान्यता के अनुकूल है, क्योंकि तीर्थकरों के समय में तो वे नग्न जिनकल्पी साधुओं का होना मानते ही हैं। स्वयं तीर्थंकर भगवान ने नग्न भेषको धारण किया था। अतएव जिनकल्प के तीर्थकर भगवान के समय के साधुओं को जिनकल्पी बतलाना ठीक ही है और उपरान्त स्थिविरकल्पी पंचमकाल में वस्त्रधारी मुनियों को स्थिविरकल्पी संज्ञा अपनी मान्यता के अनुसार देना युक्तियुक्त है । अतएव इस प्रभेद से भी नग्न अवस्था का महत्व और प्राचीनत्व' प्रमाणित है।
वास्तव में सांसारिक बन्धनों से मुक्ति उस ही अवस्था में मिल सकती है जब मनुष्य बाह्य पदार्थों से रंच मात्र भी सम्बन्ध या संसर्ग नहीं रखता है। इसीलिए एक जैन मुनि अपनी इच्छाओं और सांसारिक अाकांक्षाओं पर सर्वथा विजयी होता है। इस विजय में उसे सर्वोपरि लज्जा को परास्त करना पड़ता है। यह एक प्राकृतिक और परमावश्यक क्रिया है । उस व्यक्ति की निस्पृहता और इन्द्रिय निग्रहता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । इस अवस्था में सांसारिक संसर्ग छूट ही जाता है। एक आयरलैण्डवासी लेखक के शब्दों में कपड़ों की झंझट से छटने पर मनुष्य अन्य अनेक झझटों से छूट जाता है, एक जैन के निकट विशेष प्रावश्यक जो जल है, सो इस अवस्था में उनको धोने के लिए उसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। वस्तुतः हमारी बुराई भलाई की जानकारी ही हमारे मुक्त होने में बाधक है। मुक्ति लाभ करने के लिए हमें यह भूल जाना चाहिए कि हम नग्न हैं। जैन निर्ग्रन्थ इस बात को भूल गये हैं, इसीलिए उनको कपड़ों की आवश्यकता नहीं है। यह परमोत्कृष्ट और उपादेय अवस्था है। दि० और श्वे० शास्त्र ही केबल इस अवस्था की प्रसंसा नहीं करते, प्रत्युत अन्य धर्मों में भी इनको साधुपने का एक चिह्न माना गया है। हिन्दुओं के यहाँ भी नग्नावस्था को कुछ कम गौरव प्राप्त नहीं हुआ है। शुक्राचार्य दिगम्बर ही थे, जिनके राजा परीक्षित की सभा में जाने पर हजारों ऋषि और स्वयं उनके पिता एवं परपिता उठ खड़े हुए थे । हिन्दुनों के देवता शिव और दत्तात्रय नग्न ही हैं। यूनानवासियों के यहाँ भी नग्न देवतामों की उपासना होती थी। ईसाईयों की बायबिल में भी नग्नता साधुता का चिह्न स्वीकार की गई है, यथा
और उसने अपने वस्त्र उतार डाले और सैमूयल के समक्ष ऐसी ही घोषणा की और उस सम्पूर्ण दिवस और रात्रि को वह नग्न रहा । इस पर उन्होंने कहा, क्या प्रात्मा भी पैगम्बरों में से है?
(समुयल, १६-२४) "उसी समय प्रभु ने अमोज के पुत्र ईसाप्या से कहा, जा और अपने वस्त्र उतार डाल और अपने पैरों से जूते निकाल डाल । और उनने यही किया नग्न और नंगे पैरों विचरने लगे।"
(ईसाप्या २०-२)
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