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हस्ती घोड़े रथ पद एव, वृष गन्धर्य नर्तकी देव । सप्त प्रतीक ठीक यह कही, भो प्रभ भेद सुनौ कछु यही ॥ ८५ ॥ एक एक के हिन्ले देव, सातों के सातों सुन लेव । ऋद्धि विक्रिया को विरतंत, हुकम पाय तज देहि तुरन्त ॥ ८६ ।। प्रथम धनी गजराज बखान, सोहे बीरा रास परवान वातें गुण-दुगुण विस्तार सेना सकल जानि निरधार ||७|| सब दल लक्ष पचीस सुनेह, अरु चालीस सहस अधिके । सेवा करें सबै मन लाय, भक्ति सहित प्रण मैं तुम पाय ॥८॥ निज नगरी है गिरदाकार जोजन बीस सहस विस्तार । कोट श्रसी योजन उत्तंग, उतंग बट्टाई अवगाहन रंग ॥5॥ कनक कंगूरा है प्राकार, साई यति गम्भीर विचार सोरन तुंग रतन विवाय सब उपमा नहि वरणी जाय ||१०|| चारों दिश दरवाजे चार गो योजन ऊंचे निरधार नगरी चौपथ सचनी पांत, तामें बीथी । नाना भांत २६१॥ ता में प्रभजिन सदन अभंग, है जोजन दो से उत्तंग । जोजन नीस तास विस्तार, श्ररु आयाम दून सुखकार ॥६२॥ यह विभूति वरची समुदाय और विविध को कहे बढ़ाय अहो नाथ तुम पुष्प अगार, सो सन्मुख पायो सुविचार ||१३||
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दोहा
महिमा गुण गरम लघिमा प्राप्ति सुनेच । प्राकाम्यत्व जु वृद्धि वंश, स्वर्ग ऋद्धि वसु एवं ||१४|| सुरगराज लक्ष्मी विविध संपूरण सुखदाय । श्रद्भुत पुण्य सुरेश तुम, भुगती निज मन लाय ॥६५॥
को वह छत्तीस गुणों के धारक आचार्य की रत्नत्रय प्राप्त कराने वाली भक्ति करने लगा। संसार को प्रकाशित करने वाले सौर ज्ञानरूपी अन्धकार को नाश करने वाली उपाध्याय मुनिश्वरों की, उसने बड़ी भक्ति की साथ ही वह जिनवाणी का अध्ययन करने लगा ।
उस योगी ने समता, स्तुति, विकाल बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्यास्थान और व्युत्सर्ग में सिद्धान्त में प्रकट किये गये छ श्रावश्यक पापों को विनष्ट करने के लिए योग्य काल में नियम धारण किया। भेद विज्ञान से तपस्या से उत्कृष्ट प्रावरणों से सदा जीयों की रक्षा करने वाली जैन धर्म की वह प्रभावना किया करता था । सम्यग्ज्ञानी पुरुषों का यादर और धर्मात्माओं से वात्सल्य भाव रखता था ।
वह इस प्रकार तीर्थंकर की विभूति प्रदान करने वाली सोलह कारण भावनाओं को शुद्ध मन वचन कायसे विचारने लगा। इन भावनाओं के चिन्तन के फलस्वरूप उसे अनन्त महिमा युक्त तीर्थकर नाम कर्म का वध हुआ, जिस तीर्थकर नाम के प्रभाव से इन्द्र का शासन हिल उठता है, जिनका मोक्षरूपी लक्ष्मी स्वयं आकर आलिंगन करती है, उस पदस्य बन्ध होना क्या सरल है ? इसके बाद उक्त मुनि ने निर्दोष चारित्र का पालन करते हुए सन्यास मरण को धारण किया । पुनः सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप रूपी चतुः आराधनाओं का पालन करते हुए उसने अपने प्राणों को छोड़ा।
उक्त समाधि के परिणाम स्वरूप नन्दनामा मुनि सोलहवें स्वर्ग में जा देवों के पूज्य अच्युतेन्द्र हुए। अन्तर मुहूर्त में उन्हें पूर्ण यौवन प्राप्त हुआ और वे वस्त्रमाला आदि प्राभूषणों से सुशोभित हुए। अपनी कोमल सज्जा से उठ कर वे सुन्दर-सुन्दर वस्तुओं को देखने में संगत हो गये। स्वर्ग के विमान जादि वस्तुओं को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे कि - वस्तुतः मैं कौन हूँ, यह स्थान कोनसा है जहां सुबह सुख दृष्टिगोचर हो रहे हैं ? दुखका तो लेख भी नहीं है। ये अत्यन्त चतुर और प्रीति परिपूर्ण देव कौन है ? ये सुन्दर देवांगनायें और आकाश में लटकने वाली अट्टालिकायें किसकी हैं ?
ये बड़े सभा मण्डप और देव रक्षित मनोज्ञ सेनायें किसकी हैं ? यह दिव्य ऊंचा सिंहासन किस का है, और ये सम्पदायें किसकी हैं ? ये सुन्दर विनयी लोग मुझे देखकर हर्ष क्यों मना रहे हैं। किस कर्मकी प्रेरणा से मैं आया हूं। इन्हीं सब विषयों पर चिन्ता कर रहे थे और उनका सन्देह भी दूर न हो पाया था कि उनके चतुर मंत्री ने अवधि-शाद से उनके अभि प्राय को समझ, समीप आकर उनके चरण कमलों को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया। वह दोनों हाथ जोड़ कर उनके संयम की निवृत्ति के लिए प्रिय वचन कहने लगा। उसने कहा
देव हम लोगों पर यादृष्टि रखकर अपने सन्देह निवारण के लिए मेरे वचनों को सुनिये नाथ! आज हम अपने सफल जीवन का अनुभव करते हैं। हम धन्य हैं कि आपने अपने जन्म से इस स्थान को पवित्र किया। समग्र सम्पदाओं का बागार
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