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हैं। उस द्रव्य की उत्पत्ति विनाश पर्याय रूप में देखने आने पर भी मूल रूप में पवित्र तत्व और अपरिवर्तन रूप है।
जीव व्रख्य जनधर्म में प्रतिपादन किया हया जीव और बेबाक में कहेजा
गरें एक नहीं है। ब्रह्म एक और अद्वितीयते। परमत जैन सिद्धान्तकारों ने अपने सिद्धान्त के अनुसार असंख्यात माना है। जीव और सांख्य मत के पुरुष एक नहीं हैं। क्योंकि जीव नित्य शुद्ध और मुक्त नहीं है । जीव के बन्धन सत्य हैं । जैन अनुयायियों के जीव और न्याय वैशेषिक के पात्मा ये दोनों एक नहीं हैं। क्योंकि जन मत के जीव जड़ नहीं हैं, बल्कि साक्षात् कतृत्व है। जैनियों के जीव और बौद्ध मत का क्षणिक विज्ञान ये दोनों एक नहीं हैं। क्योंकि जीव सद् प सत्य और नित्य पदार्थ है।
इस जीव को जैनाचार्यों ने व्यवहार और निश्चय ऐसे दो भेदों से अबलोकन किया है। शुद्ध निश्चय नय से देखने में जीव अविनाशी, निरूपाधि शुद्ध चैतन्य लक्षण (भाव प्राणों से) जीता है और कलंक रहित केवलज्ञानदर्शनोपयोग मय, अमतिक प्रतीन्द्रिय और शुद्ध बदक स्वभाव बाला, निष्क्रिय लोक और सम्पूर्ण लोकाकाश को व्यापने को शक्ति को रखनेवाला नया असंख्यात प्रदेशवाला है। अर्थात् सर्वव्यापक, निविकल्प और ब्रह्मानन्द में सर्वदा तैरनेवाला है। संसार रहित नित्यानक रूप, अनन्त ज्ञानवैभव से यूक्त सिद्ध तथा स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। इस प्रकार कर्मरहित जीव के स्वरूप का विवेचन हुआ।
जीवो उवयोगमयो प्रमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई। यह जीव यद्यपि शुद्ध निश्चय नय से आदि, मध्य और अन्त से रहित, निज तथा अन्य का प्रकाशक, अविनाशो, उपाधि रहित और शुद्ध चैतन्य लक्षणवाला निश्चय प्राण से जीता है, तथापि अशुद्ध निश्चय नय को अपेक्षा अनादि कर्मबन्धन के बश अशद्ध द्रव्य प्राण और भाव प्राण से जीता है । इसलिये जीव है ।"उवयोगमत्रो” यद्यपि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से पूर्ण निर्मल, केवलज्ञान व दर्शन दो उपयोगमय जीव है, तो भी अशुद्ध नय से क्षयोपशमिक ज्ञान और दर्शन से बना हया है। इस कारण ज्ञानदर्शनोपयोगमय है। "ममूत्ति" यद्यपि जीव व्यवहार से मूर्तिक कर्मों के अधीन होने से स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाली मति के सहित होने के कारण मूर्तिक है, तो भी निश्चय नय से प्रमूर्तिक, इंद्रियों के अगोचर, शुद्ध बुद्ध रूप एक स्वभाव का धारक होने से अमूर्तिक है।
___ "कत्ता' यद्यपि यह जीव निश्चय नय से क्रिया रहित टंकोत्कीर्ण अविचल ज्ञायक एक स्वभाव का धारक है, तथापि व्यवहार नय से मन, वचन, काय के व्यापार को उत्पन्न करने वाले कर्मों से सहित होने के कारण शुभ और अशुभ दोनों कर्मो का करने वाला होने से कर्ता है। "सदेह परिमाणो" यद्यपि यह जीव निश्चय नय से लोकाकाश के प्रमाण असंख्यात स्वाभाविक शुद्ध प्रदेशों का धारक है, तो भी व्यवहार नय से अनादि कर्मबंधवशात् शरोर कर्म के उदय से उत्पन्न, संकोच तथा विस्तार के प्राधीन होने से, घट आदि में स्थित दीपक की तरह अपने देह के बराबर है। "भोत्ता" यद्यपि जीव शुद्ध
1. द्रव्य के लिये अस्तित्व प्राप्ति :१-अस्तित्व :-प्रह द्रव्य का अबिनाशी स्वभाव है । इन शक्ति से ही इस द्रव्य को नित्यत्व प्राप्त हो गया है।
२-वस्तुत्व :--यह शक्ति ही द्रव्य के अर्थ क्रिया कारित्व का कारण हुआ है। घट का अर्थ क्रिया जल धारण होता है। इस जल धारण क्रिया को दस्तुत्व कहते हैं।
३-ट्रध्यत्व:-जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य सर्वदा एक ही समान नहीं रहता और कोई भी एक पर्याय दूसरी पर्याय में बदलती ही रहती है । इस शक्ति को द्रव्यत्त्व कहते हैं।
४-प्रमेयत्व :-द्रव्य किसी एक ज्ञान का विषय होता है प्रमेयत्व गुण से ।
५-अगुरु लघुत्व :-दृश्य में रहने वाला व्यत्व स्थित होकर रह जाय तो ऐसी देखने वाली शक्ति को अगुरु लघु कहते हैं। इस प्रकार शक्ति रहने के कारण से ही एक द्रव्य दूसरे ट्रम्प रूप होने नहीं देता।