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इस कर्म को दूर करने के लिए धर्म ही समर्थ है दूसरा कोई नहीं है। ऐसा विचार करना एकत्व' अनुप्रेक्षा है।
५.–शरीर का प्रात्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है मेरा होकर कभी भी नहीं रहता है। ये जीव अनादि काल मोह के कारण है। यह शरीर ही संसार के मोह में पड़ा है। यह मेरा नहीं है भिन्न रूप से चिन्तवन करना ये अन्यत्व अनुप्रक्षा है।
६- यह शरीर शुक्र और रक्त वीर्य से युक्त है इसका निर्माण इससे ही हुमा है। इससे बढ़कर के और कोई घृणा को चीज नहीं है। ऐसे शरीर सम्बन्धी आलोचना करना अशुचि अनुप्रेक्षा है।
७.—जिस प्रकार गर्म लोहे का गोला यदि जल में रख दिया जाय तो वह अपने चारों ओर के जल को खीच कर सोख लेता है इसी प्रकार क्रोध, मान, हास्य, शोक प्रादि दुर्भावों से संतप्त संसारो जोव' सर्वाङ्ग से अपने निकटवर्ती कार्माण वर्गणाओं को प्राकषित करके अपने प्रदेशों में मिला लेता है, विभाग परिणति के कारण जीव को यह कर्मास्त्रव हुआ करता है ऐसा विचार करना आस्रव अनुप्रेक्षा है।
८-कर्म को बुरा कर जैसे कीचड़ के ऊपर मिट्टी फेंकने के समान कषाय को बुलाकर जो कर्म प्राज तक पाश्रव के द्वारा पाये थे और प्राथव का दरवाजा खुला था, कर्म पाश्रव न पा जाये । इस प्रकार पाने वाले प्रभाव को बन्द करना और बन्द करने का विचार करना ये संवर अनुप्रंक्षा है।
६.-प्रनादिकाल से लेकर अभी तक मेरे प्रात्मा में मित्र के नाते जो कर्म पा करके कर्म पुदगल एक हो गये हैं। उसको परस्पर भेद करने के उपाय को विचार करना निर्जरा अनुप्रेक्षा कहते हैं।
१०.-लोक स्वरूप का चिन्तवन करना लोकानुप्रेक्षा है।
११.-जीवों में मानव पर्याय दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय में सद्धर्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। उससे रत्नत्रय स्वरूप हो भी तो प्राप्त करना ये अत्यन्त दुर्लभ है । ऐसे विचार करने को बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा कहते हैं।
१२.-समान रूप से सद्जाति में जन्म लेकर सदगदस्थ को प्राप्त होना जम में जैन धर्म प्राप्त करना । पुनः चक्रवर्ती होकर जन्म लेना उसके बाद अहंन्त होकर निर्वाण को प्राप्त करना ये उत्तरोत्तर दुर्लभ है । इस प्रकार ये सभी भाग्य मुझे कब प्राप्त होंगे इसी प्रकार विचार करना धर्म अनुप्रेक्षा है।
जिन वाणी से प्राप्त हुआ जिन धर्म दस प्रकार का है।
१.-उत्तम क्षमा, २-मार्दव, ३-आर्जव, ४-सत्य, ५-शौच ६–संयम, ७-तप, त्याग, ६-आकिंचन, १०-ब्रह्मचर्य ।
इस दस प्रकार के धर्म को पालन करने से निश्चित सुख की प्राप्ति होती है। ये ही मात्मा का धर्म है। इसके अलावा किसी प्रकार से शान्ति नहीं मिल सकती । इसका पालन करना धर्म अनुप्रेक्षा है ।
सोलह कारण भावनायें ये सोलह भावना तीर्थकर पद प्राप्ति होने के कारण इनको कारण भावना कहते हैं। इन भावनाओं को पुनः पुनः चिन्तवन करने से ही धेणिक राजा भविष्य काल प्रथम महापदम तीर्थकर होगा। इस प्रकार शास्त्र में उल्लेख किया गया
१-दर्शन विशुद्धि, २-विनय सम्पन्नता, ३-शीलवतश्वर-अतिचार, अर्थात अहिंसा व्रत आदि में किसी प्रकार दोष न पाना ऐसी भावना करना।
४-अभीक्षण ज्ञानोपयोग अर्थात प्रतिज्ञा में सम्यक्दर्शन के महत्व की भावना करना । ५-संबेग-धर्मानुराग में हमेशा विचार करना। ६-शक्ति का त्याग-शक्ति के अनुसार त्याग करना । शक्ति के बाहर त्याग न करना शक्ति त्याग कहते हैं। ७-शक्ति का तप-अपनी शक्ति के अनुसार तपश्चरण करना ।
८-साधु समाधि-साधु के तपश्चरण करने उपसर्ग प्रादि या उनकी शक्ति के अनुसार आये हुये उपसर्ग को दूर करने का विचार करना ये साधु समाधि है।
६-वैय्यावृति करना- सज्जन तथा साधु पर आने वाले कष्ट को दूर करने का प्रयत्न करना । १०-अर्हन्त भक्ति--पुनः पुनः जिनेन्द्र भगवान के गुणगान करना अथवा भगवान की भक्ति करना।