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श्रारम्भ करने में जीव हिंसा होती है तथा चित्त व्याकुल रहता है, कषाय भाव जागृत रहते हैं, श्रतः श्रात्म-शुद्धि और अधिक दया भाव आचरण करने की दृष्टि से इस प्रतिमा का धारी अपने हाथ रसोई बनाना बन्द कर देता है। दूसरों के द्वारा. बनाये हुए भोजन को ग्रहण करता I
परिग्रह त्याग
रुपये, पैसे, सोना चांदी, मकान, खेत, श्रादि परिग्रह को लोभ तथा आकुलता का कारण समझकर अपने शरीर के सादे वस्त्रों के सिवाय समस्त परिग्रह के पदार्थों का त्याग कर देना परिग्रह त्याग प्रतिमा है ।
इस प्रतिमा को धारण करने से पहले वह अपने परिग्रह का धर्मार्थं तथा पुत्र आदि उत्तराधिकारियों में वितरण करके निश्चित हो जाता है । विरक्त होकर धर्मशाला, मठ आदि में रहता है। शुद्ध प्रासुक भोजन करने के लिए जो भी कहे उसके घर भोजन कर आता है, किन्तु स्वयं किसी प्रकार के भोजन बनाने के लिए नहीं कहता । पुत्र आदि यदि किसी कार्य के विषय में पूछते हैं तो उनको अनुमति ( सलाह ) दे देता है ।
अनुमति त्याग
घर गृहस्थाश्रम के किसी भी कार्य में पी हनुमति (जाजत) तथा सम्मति देने का त्याग कर देना अनुमति त्याग
प्रतिमा है ।
इस प्रतिमा का धारक अपने पुत्र आदि को किसी व्यापारिक तथा घर सम्बन्धी कार्य करने की न करने को किसी भी तरह की सम्मति नहीं देता । उदासीन होकर चैत्यालय प्रादि में स्वाध्याय, सामायिक आदि आध्यात्मिक कार्य करता रहता है। भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करके घर पर भोजन कर थाता है ।
'उद्दिष्ट त्याग
के समान गोचरी के रूप में जहाँ पर ठीक विधि
अपने उद्देश्य से बनाये गये भोजन ग्रहण करने का त्याग करना उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है। धावक को यह सर्वोच्च प्राचरण है। इस प्रतिमा का धारक घर छोड़कर मुनियों के साथ रहने लगता है। मुनियों भोजन मिल जावे वहाँ भोजन लेता है। निमन्त्रण से भोजन नहीं करता । इस प्रतिमा के धारक के दो भेद हैं- १. क्षुल्लक, ऐलक ।
जो कौपीन ( लंगोटी) और एक खण्ड वस्त्र (छोटी चादर जो कि सोते समय सिर से पैर तक सारा शरीर न ढक सके) पहनने के लिए रखता है, अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता तथा एक कमंडलु और मोर के पंखों की पीछी रखता है ।
ऐलक - केवल मात्र एक लंगोटी पहनता है अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता ।
यहाँ यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि आगे की प्रतिमा धारण करने वाले को उससे पहले की प्रतिमाओं के यम, नियम ग्राचरण करना आवश्यक है।
बारह भावना
शरीर आदि समस्त संसार के प्रपंच श्रात्मा से बाह्य पुद्गल का उसी प्रकार उसके स्वरूप की आलोचना करके इससे विरक्त होकर आत्मा के साधक के लिये सद्धर्म ही एक कल्याण का मार्ग है। ऐसे सम्यक्त्व पूर्वक वैराग्य भावना रखने के लिए अनुप्रेक्षा का विचार करना ही अनुप्रेक्षा है । ये अनुप्रेक्षा १२ प्रकार की है।
१ - प्रनित्य अनुप्रेक्षा - शरीर इन्द्रिय विषय भोग ये सब बिजली के समान क्षणिक हैं। ऐसा विचार करना ।
२ - जन्म मरण व्याधि-- व्यसन से भरा हुआ ऐसे भव संसार से अपने को उद्धार करके कोई रक्षा करने वाले नहीं हैं। एक धर्म ही स्वयं रक्षा करने वाला है। ऐसा विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है ।
३ - संसार में कर्माधीन हुआ जीव अनेक प्रकार के संसार रूपी भव में भ्रमण करता है इसी भव भ्रमण से इस जीव को तारने वाली अपनी श्रात्मा ही हैं दूसरा कोई नहीं है। यह संसार अनुप्रेक्षा है ।
४ – अपने द्वारा किये हुये कर्म को आप अकेला ही भोगना पड़ता है दूसरा उसमें कोई भागीदार नहीं होता है ।
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