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चौपाई
उत्तम मात्र भेदत्रय सार उत्तर मध्यम जपन विचार उत्तम में उत्कृष्ट हि पात्र दान दिये तद्भव शिव जान उत्तम पाह में जान पात्र को परवान उत्तम पात्र विर्ष मुनि तेह, पात्रजघन्य कहावं यह थावक ग्यारह प्रतिमा घार, ऐलक क्षल्लक दोष प्रकार दम तमिलों जान त्रह्मचर्य पाने वहान
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तीर्थकर मान पाचं भोजन हिन पुर थान ।। १२२ ।। गणधर चार शान के धनी मुनी ।। १३०॥ टीम गुण धारोहिये पष्ठम गुणवानक तिथि किये ।।१३१।। मध्यम वा भेद श्रथ सुन, उत्तम मध्यम जघनहि गुनी ।। १३२ ।। मध्यम पात्र विषे उत्कृष्ट देशव्रती ध्यावें परमेष्ट ।। १३३|| परं दिजे मध्यम पावहि मध्यम ते ॥१३४॥
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। विवधायसन त्याग गुन मन्य ते मध्यम पात्रहिं जु जघन्य ॥ १३५॥ क्षायिक सम्यदृष्टी होय, पात्र जघन्य हि उत्तम सोच ।। १३६ ।। उधम सम्यग्दृष्टो जो
पात्र जघन्य जधन्य कही ।। १३७१
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पष्ठमित पहिली लग जोई धारे प्रतिमा श्रावक सोइ पात्र जघन्य गुनोत्रय भेद, उत्तम मध्यम वधन सभेद वेददृष्टजन, सोजन्य में मध्यम समान सर्व लिंगी जे जती गुण यट्ठाइस त्राहि रती । सम्यग्दृष्टि विना जग मांहि ते कुपात्र उत्कृष्ट कहांहि ।। १३८ ।। ब्रह्मचारि किरिया अनुसरं द्रव्य लोभ प्रति उरमें धरे । सम्यग्भाव रंच नहि लौ, ते कुपात्र मध्यम जग कहै ||१३|| ब्रह्मचर्यं वाहिज जं च द्रव्य तनों बहु संग्रह लहैं । समकित भाव न कहूं भये, जघन कुपात्र ताहि वर नये ।। १४० ।। व्रत सभ्यश्व न जाने रंच, सोपान उत्कृष्ट प्रॉच ॥११४१।। मिथ्या मारग को आदरे, ते अपात्र मध्यम अनुसरें || १४२॥ हिंसा करम करें अधिकार, सो अपात्र अन्य निहार ।। १४३ ।। और कुपात्र अपावहि दोय, पांच भेद ये जानो सोय ॥ १४४ ॥ जुदे जुदे फल तिनके सुनी, भविजन निश्चय के मन गुनौ || १४५|| मध्यम को जो देय सुदान, मध्यम भोगभूमि परवान ॥ १४६॥ पात्र जघन्य दान फल यहै, भोगभूमि तें अन्तिम लहे । यह सुपात्र फल जानो भेद, अब कुपात्र सुनिये तन खेद || १४७ ।। दान कुपात्र तने परभाव, लहैं कुभोग भूमिकी यात्र 1 अरु अपात्र को दीजं दान, तो पशुगति पावे दुखखान ॥ १४८।।
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दोहा
अहिमुख, कदली सीप जहूं, स्वाति वृन्द जलजोग । विष कपूर मोती मयौं, सो विधदान निजोग || १४६ || अंधकूप धन डारिये, सोइ भली कर जान दान कुपात्रहि देऊ नहि, सज्जन करो समान ॥ १५०॥
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जो कुलिंग मिथ्या अनुसरं, रक्तपीतसित सहि परं नानावैप धरै जगमोहि, समतिक व्रत कछु जाने नाहि व्रत समय न जाने मूल उपजावे मिथ्यामत कूल उत्तम मध्यम और जघन्य ये ही तीन पात्र अभिमन्य एक एक प्रति त्रय त्रय जान, ते सब पन्द्रह भेद प्रमान उत्तम पात्र दान जी देई, उसम भोगभूमि फल से
छोड़कर नियमपूर्वक उपवास किया जाता है उसको प्रोपोपवासाित कहते हैं। नित्य प्रति भक्ति पूर्वक जो मुनियोंको चार प्रकारको विधिके साथ ग्राहारादि न किया जाता है उसको अतिथि संविभाग नामका शिक्षात कहते हैं।
इस प्रकार मन वचन और कायकी शुद्धि हो जाने पर श्रतीचार यानी दोनों से रहित हो जाते हैं और जब इन पूर्वोक्त पांच महाव्रतोंके पालने में तत्पर रहते हैं उनके लिये द्वितीय व्रत प्रतिमा होती है। जो लोग अणुव्रतको धारण किया करते है उनको मृत्यु- समय में आहार धीर क्वायादि को छोड़कर उन्नत पद पाने की इच्छा से मुनि चारित्र धारण करना चाहिये श्रद्धा और विश्वास पूर्वक सल्लेखनाव्रत का पालन करना चाहिए। इसके बाद तीसरी प्रतिभा का नाम सामयिक प्रतिमा है और चतुर्थ प्रतिमा का नाम प्रोषधोपवास है। फल, बीज, पत्ते जल, इत्यादि प्रायः सभी वस्तु जीव से युक्त हैं । तथा धर्म पालन करने के लिये इसका परिस्याग करना सचित्त त्याग प्रतिमा नामकी पांचवीं प्रतिमा है। मुक्ति के लिए रात्रि समय में चारों प्रकार के श्राहारों का परित्याग किया जाता है और दिन के समय मैथुनका परित्याग है उसको परम प्रतिमा कहते है जो इन पूर्वोक्त छ प्रतिमायोका पालन करते हैं और मन
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