________________
तप धार तो सुर शिव दोय, मर राज्यमें नरक हि होय । आखिर पहुंचे पद निर्वान, पदवी धर ये बड़े प्रधान ॥५४४।। अधचकी के दोऊ भेद, हरि प्रतिहरि नारक गति खेद । राज्यमाहि ये निह मरे, तद भब मुक्ति पंथ नहि धरै ।।५४५|| प्राखिर पावें जिनवर लोक, पुरुषशलाका शिबके थोक । बलभद्रनकी दौयहि गती, स्वर्ग जांय है के शिवपती ।।५४६|| तप धार ये निश्चय पाय, मुक्ति पात्र ये श्रुत में ठाय । कुलकर नारद रुद्र रु काम, जिनवर तात मात पद नाम ।।५४७।। इनकी आगत धत ते जान, गतके भेद जु कहौं बखान । कुलकर देव लोक ही लहैं, पारद रुद्र अधोपुर गरें ।।५४६॥ मदन मदन हृत स्वर्ग जु कोय, कोई तद्भव शिवपुर होय । तीर्थकरके पिता प्रसिद्ध, स्वर्ग जाय कै हूँ हैं सिद्ध ।। ५४६।। माता स्वर्ग लोक ही जाय, आखिर शिवपुर बेग लहाय । ये सब रीति मनुष को कही, अब सुन तिरजग गति की सही ॥५५॥ पचेन्द्रिय पशु मरण कराय, चौबीसों दण्डक में जाय । चौबीसों दण्डक ते मरं, पशु य होइती नाहि न करै ।।५५१॥ गति भागती कही चौबीस, पंचेन्द्रिय पशुको जो ईस । ता पंचम सुरको पथ गहीं, चौबीसी दंडक नहि लहौ ॥५५२॥ विकलत्रयकी दश ही गति, दशप्रागति कहि थी जगपती। पांचौ थावर विकलत्र तीन, नर तिरजग पचेन्द्रिय लोन ||५५३॥ इन ही दशमें उपज जाय, इन हो ते विकलत्रय प्राय । पृथवी पानी तरुवर काय, इन ही दशमें जनम कराय ।।५५४|| नारक बिन सब दण्डक जोय, पृथवो पानी तरुवर होय । तेज वायु भर इनमें जाय, मानुष होइ न सूत्र कहाय ।।५५५। थाबर पंच विकलत्रय ठोर, ए नव गत भाषौ मद मोर । दश तें प्राय तेज अरु वाय, होय सही भावो जिनराय ।।५५६।। ये चौबीसों दण्डक बाहे, हाको त र
हे ' इनमें एकै गति को जीव, इनते रहित होय जग पीव ।।५५७||
अथ ऊर्ध्वगमन वर्णन प्रकृति बंध थिति बंध जु एव, अरु अनुभाग प्रदेश लहेव । बंधन चार जीवको येह, चारौं गति भटकावं तेह ॥५५॥ बंध विजित जब जिय होय, ऊरध गमन करै तब सोय । जैसे तुंबी मृतिका लेप, जल में बड़ रहे बल क्षेप ।।५५३।। क्रमसों लेय जाय खिरि जबै, करध गमन कर जिय तवं । जो लौं चहुंगति बंध्यौ जीब, विदिश वजि गति करै सदीब ।।५६०॥
सिद्ध जीव वर्णन
सोरठा
बसे सिद्ध सब खेत, ज्यों दर्पण में छांह है। ज्ञान नैन लखि लेत, चरम नैन सौ प्रगट नहि ।।५६।।
पद्धडि छन्द
तह अष्ट कर्म मल मुक्त होय, अर अष्ट गुणातम रूप जोय । व्यय उतपति ध्रौव्य संजक्त तीन, जहं चरम देहत कछक हीन ।। जो अथिर द्रव्य परजाय कोई, तस हानि वृद्धिमय रूप जोय । तेई, नव सिद्धनको प्रवान, है व्यय उतपति अरु घोच्य जान ।। जब भव परिणति कोनी विनाश, तब भई सिद्ध परजाय जास । निह चल पद पायो शुद्ध वास, येहि ब्यय उनपति ध्रौव्य जास ।।
होकर अनुपम, प्रात्मजन्य, विषयातीत, आकुलता हीन, सिद्धिहानि रहित, नित्य अनन्त और सर्वोत्तम सुखोंका वह ज्ञान शगेरी सिद्ध परमात्मा भोग करता है । अहमिंद्र इत्यादि देव, चक्रवर्ती विद्याधर भोगभूमि या इत्यादि, मनुष्य, व्यन्तरादि जघन्य देव, सिंहादि पशु ये सभी जिन विषय सुखोंको भोगते हैं अथवा भविष्यकालमें भोगगे उन सबके सम्मिलित विषय-सुखोंको यदि एक श्रित किया जाय तो उस इकट्ठहुए विषय-सुखों के समूहमे अनन्त गुणा अधिक सुख कर्म हीन हुए सिद्ध भगवान् एक समय में भोगते हैं। उनका सुख अनन्त और निविषय है। ऐसा समझकर ऐ मतिमान पुरुषों, तुम लोग प्रमाद और आलस्यको छोड़कर विषय जन्य सुखसे अनन्त गुणा अधिक सुख प्राप्तिको इच्छासे तप और रत्नत्रय इत्यादिके द्वारा मोक्षको प्राप्त करो। इस प्रकार इन्द्र, विद्याधर और मनुष्यों के द्वारा पूजित जिनेन्द्र श्रीमहावीर प्रभु ने सत्र भव्यजीव समूहों को तथा गणधरोंको अपनी दिव्य मधुर