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दोहा
नारकगति है प्रथम ही, भवमपति दश जान । जोतिक व्यन्तर, तेरमौ चौदह स्वर्गहि थान ।।५१६।। थावर पांचों, बिकलत्रय पंचइन्द्रिय तिरजच । चौबीसी मानुष गनी, कहीं भेद अब रत्र ।५२०।।
चौपाई
नारककी गति प्रागति दोय, नर तिरजंच पचन्द्रिय होय । जाय असनी पहिला लग. मन विन हिंसा कर मन पनं ।। ५२१।। सरीसर्प दुजो लौं जाय, तीजं ली नभचर पहुंचाय । सर्प जाय चौथी लों सही, नाहरको पंचम जिन कही ।।५२२।। नारी छट में लौं सो जाय, नर श्रर मच्छ सातली थाय। यह तो नारककी गति कहै, अब सून भागति जिहि विधिल है।।५२३।। सातम नरक निकस के कोय, पर गतिमें आवे दुख जोय । प्रवर नरक सबके कढ़ि जीव, नर पर पशुगति लहै सदीय .।५२४।। छट्टम नरक निकसि कोइ जीव, समकित लहै निपाप अतीव । पंचम ते निकस्यो मुनि होय, चौथे को केवल धर सोय ।।५।। ताजैको निकस्गो शनि कोय, तीर्थकर गट धार सोय। ऐसी विधि प्रागति पहिचान, सात नरक की कहि भगवान ॥५२६।। तेरह दंडक देव निकाय, तिनके भेद सुनौ मन लाय। नर तिरजंच पंचेन्द्रिय बिना, और न काहू सुरपद गिना ।।५२७।। देब मरै गति पंच लहाहि भ जल तरु नर तिरबर महि । दुजे स्वर्गसु ऊपर देव, थावर होय म कहिये एव ।।५२८।। सहस्रारतं ऊंची सुरा, मरके होय सु निहलै नरा। भोगभूमिके तिर अरु नरा, दूजे देवलोक तं परा ।। ५२६॥ जायं नहीं यह निह कहो, देवन भोगभूमि नहि लहो। करमभूमिया तिरजग जतो. श्रावक व्रत धर बारम गतो॥५३०॥ सहस्रारत पर तिरजंच, जाय नहीं तजह परपंच । अव्रत सम्यग्दृष्टी नरा, बारम त ऊपर नहि धरा ॥५३१॥ अन्य तपी पंत्रागनि साध, भवनत्रिक ते जाय न बाध । परिव्राजक दंडो है तेह, पंचम पर नहीं उपजेह ॥५३२॥ परमहंस नाना परमती, सहस्रार कार नहि गतो। मोक्ष न पावहि परमतो मांहि जन बिना नहि कर्म अशाहि ।।५३३।। श्रावक अरजा अणुव्रत धार, बहुर श्राविका गनी विचार । सोलह स्वर्ग पर नहि जाय, ऐसी भेद कहीं जिनराय ॥५३४।। द्रव्य लिंगधारी से जती, नवनवक ऊपर नहि गती। नव अनुदिश प्रम पंचोत्तरा, महामुनी बिन पोर न धरा ।।५३५॥ कई वार देव जिय भयो, तिनमें कई पद नहि लयो । इन्द्र भयो न शची हू भयो, लोकपाल पुन कबहुं न धयो ॥५३६।। पर लोकान्तिक भयौ न सोय, नहीं अनुत्तर पहुंचौ लोय । ए पद लह बहु भव रहि धरे, अल्पकाल में मुक्ति सु बरै ।।५३७।। गत्यागत्य देव गति येह, अब नरगतिके भेद सुनेह । चौबीसों दंडकके मांहि, मानुष जाय जु संशय नाहि ॥५३८।। मुनि पद धरै होय शिव ईश, मानुष बिना न मुनिपद दीस । गति पच्चीस कहो नर ईश, मनुष तनो भाषा जोगोश ॥५३६।। आगत मुनि बाईस जु सोय, तेजकाय अम बायु जु काय । इन विन पीर सबै नर थाई, गति पच्चोस पागतो बाई ॥५४०।। यह सामान्य मनुष्यकी कहो, अब सुन पदवीधर को सहीं । तोर्थंकर को दो या गतः, सुर नारक त आव सतो ॥५४॥ फेर न गलि धारै जगदीश, जाय विराज जगके शीस । चको अधचक्री अरु हली, स्वर्ग लोकत प्राब वली ॥५४२।। इनकी प्रागत एक ही जान, गतिकी रीति जु कहीं बखान । चक्रो को गति तोन जु होड, स्वर्ग नरक अरु शिवपद जोइ॥५४३॥
विस्तारशः कर दिया गया। पुनरुक्ति दोषके भयसे पुनः यहां उल्लेख नही किया जाता। जो परिणाम मोक्षाभिलाषी जीवोंके सम्पूर्ण कर्मों में नाशक हाँ वही अतिशुद्ध परिणाम है । उसीको जिनेश्वर महावीर प्रभुने भाबमोक्ष कहा है । अन्तिम शुक्ल ध्यान के प्रभाव ज्ञानमय आत्माका सम्पूर्ण कर्मजालसे पृथक होजाना हो द्रव्यमोक्ष है। जिस प्रकार कि पापाद मस्तक अनेक बन्धनोंसे बंधे हुए पुरुष को सव बन्धन खुल जानेसे अत्यन्त हर्ष और सुख प्राप्त होता है उसी प्रकार असंख्पेय कर्म बन्धनोंसे जकडे द्वारा जोवको मोक्ष मिल जाने से वह ीब निराकुल होकर अनन्त और अक्षय सुखको प्राप्त करता है। कर्मोसे छ? जानेके वाद मति हीन ज्ञानवान् अति निर्मल पात्मा स्वभावत: उर्द्धगति होनेके कारण ऊपर सिद्धालय में जा पहुंचा है। वहाँ जाकर निधि