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दोहा
छत्र चमर ध्वज ताल जूत, कलश अवसर भगार । सुप्रतिष्ठक दर्पण सहित, मंगल द्रव्य सुसार ॥३७॥ वसु द्रव्य ताही सदा, उपमा दीजे काय । देव रचित मंगल करत, घरी सबै समुदाय ।।३।।
चौपाई
सिंहपीठ ऊपर हरि आप, दक्षिण दिशि सिंहासन थाप । ताप पूरव मुख प्रभ करी, कमलासन अद्भुत बल धरी ।।३।।
सो) धर्म इन्द्र दक्षिण दिश हार, अरु उत्तर ईशान कुमार । दश दिकपाल' दशों दिश खड़े, सुर विद्याधर पानन्द बड़े ॥४० काल्पत पहपनकी माल, प्रभु के प धरी तत्काल । मीस त्य' वादिम प्रकाय, जै जै हर्ष कर हरषाय ।।४।। इन्द्राणी मादिक सब देव, दिव्य कण्ठ गावें प्रभु सेव । सहस अठोत्तर कलश बखान, जोजन एक तास मुख जान ||४२।। जोजन पाठ महा गंभीर, उदय चार हाटकमय तीर । अब कुबेर रतनन कर खची, नानावर्ण पंडिका रची ।।४।। मेह शिखरते सोहै पंत, पंचम सागर के पर्यन्त । सकल सुरासुर तहत ठाट, एक एक छोड्यो दधि घाट ।। ४४|| सेनी बांधी देवन सबै, हथाहत्थ कलशा ले तबै । सो क्षीरोदधि जल भर लाय, जन्मासेक करा मन लाय ||४५।। प्रथम सौधर्म इन्द्र के हाथ, कलश दये देवन सब साथ । एक सहस व भुजा कराय, सकल कलश ढारै हर्षाय ।।४६।। शेष पाक मर सकल ज देव, ढारै कलश कहीबहु सेव । तीन घार ह्व शिरपर ढरी, मानों त्रिविध मिली सरसरी ।।४७।। जो घर सों गिरिवर खंड, सो प्रभु सही महा बल बंड 1 वीर थान अति वीरज सक्त, उपमा कौन कहै कर भक्त ।।४८।। प्रभ को परस छटो उपराय, पाप मुक्ति इव ऊरध ल्याय । प्रभुबल अद्भुज बरनों कहा. फूलमाल सम धारा महा ।।४।। वपु इक हाथ शरीर प्रमाण, नर सुर प्रभुबल अचरज जान । जै जै शब्द करें अति सबै, कलकहराव भयौ है तबै ॥५०॥ मस्व अवलोकै दिग कौभार, मुक्तागण सम जल अमधार । पाण्डुक रव अति सोहत भयो, निर्मल बहु विचित्रता ठयो ॥५॥
राज मणि प्राभा सोय, जन्म स्नान मगन सुर होय । उमगि चल्यो क्षारोदधि नीर, मानों गंगा बड़ी समीर ॥१२॥ सामग्री सब गंध गहीर, सधा समान न्हवन को नीर । श्री तीर्थश म्हवन अतिशाय, गंधोदक बंद हरषाय ॥५३॥ जो धारा प्रभ परस जो चली, सो सुर निज निज माथे दली । पाप अनेक गये भग दूर, देह पवित्र करी गुण भूर ।।५।। खगउधार वत धारा राज, सहत सकल सुर मुक्तिहि काज । अमृतसम धारा निज गृही, विषमल धोय शुद्धता लही ॥५५।। पण्य अनेक उपाजें सोय, लक्ष्मी मुक्ति सरूपीहोय । सकल सिद्धि की करता सबै, (अ) भीष्ट संपदा लोनी जबै ।।५६।।
संसार में बह विलक्षण पुरुष कौन है? यह तो हई पहेली। माता ने इसी श्लोक में परमात्मा शब्द से उत्तर दिया है। कारण परमात्मा का अर्थ एक तो विलक्षण पुरुष होता है और दूसरा अर्थ परमात्मा भी है। परमात्मा नित्य कामिनी अर्थात अविनाशी मोक्ष रूपी स्त्री में अनुरागी है और उसी की इच्छा रखने वाला है।
दृश्योऽदृश्यऽस्त्रितचिभूषः प्रकृत्या मिर्नलोऽव्ययः । हंता देह विधेर्देवो नाऽयं क्ववर्ततेऽद्य सः ॥ २॥
अर्थात् जो अदृश्य है, फिर भी देखने योग्य है, स्वभाव से निर्मल होने पर भी देहकी रचना का नाशक है, पर महादेव नहीं हैं। इस श्लोक में देवोना शब्द से उत्तर है कि देवरूपी मनुष्य थी अर्हन्त देव हैं, यह भी पहेली है।
इस प्रकार उन देवियों ने प्रश्नोत्तर के रूप में माता से अनेक पहेलियां पूछी हैं। वे भिन्न हैं- हे सुन्दरी ! असंख्यात मनष्य और देवों द्वारा सेचित तीनों जगत का गुरु तेरा पुत्र उत्तम अनेक गुणों से युक्त विजयी हो । (इसके श्लोक में अोठ से बोलने वाला एक भी अक्षर नहीं है, अतः यह निरोष्ठच अक्षर है।) जिसने दूसरी स्त्रियों से प्रेम करना छोड़ दिया है, पर फिर भी अविनाशी मोक्ष सुख में अनुरागी है, ऐसा गुणों का समुद्र तेरा पुत्र हमारी रक्षा करे। (इसके श्लोक में भी नीरोष्ठच अक्षर है।) हे जगत का कल्याण करने वाली तीन लोक के स्वामी को गर्भ धारण करने वाली हरिहरादिके मनकी रक्षा कर इसके श्लोक में 'अब' क्रिया छिपी हई होने से क्रियागुप्त है।)
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