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वित्र असे गोतम नाम, नाके प्रिया कोशिकी राम ॥११३ मिध्यादृष्टि उपजो जाग, कुमति तनी कीवी परकास ॥११४॥ बहु कलेश धारौ तिन काय, आयु क्षीण तह मरण कराय ।।११५।। सागर सय आयु परवान श्री दिव्यादिक मति जान ।। ११६॥ सालंकाइक विप्र वसन्त नाम मन्दिरा तिय शोभन्त ॥ ११७ ॥ भरद्वाज नाम सुत भयौं । यति कुशास्त्र में तत्पर लीन, मिथ्यामन वेदक परवीन ॥११८॥ वेप त्रिदण्डीको वह घरी । तप कर देव आयु को बांधि मरण समय कर हिये समाधि ॥१११६॥ करें तास देवी सब सेब । सप्त जलधि तह ग्रायु प्रमान तप कलेश पायो शुभयान ||१२|| दोहा तां ते चय दुर्भागं घर, प्रगट्यो भूतल मांहि । महा पापके पाकतें निन्द्य अधोगति जाहि ॥ १२१ ॥ चौपाई
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यो क्षेत्र पत्र भरत महात् मंदरपुर ता मध्य प्रधान देव भयो तिनके सुत भयो पनिमिष नामा तस दयो निरव भव सम अभ्यास, पुरातनी दीक्षा उर वास । तप अज्ञानतने परभाव, स्वर्ग महेन्द्र देवपद पाव व पूर्ववत गुण अभिराम, सोर्हे पुरवमन्दर नाम स्वर्ग महेन्द्र देव सी चय, अन्त अज्ञान जोग प्रादर्श, स्वर्गं महेन्द्र भयो सो देव,
इतर निगोद अम्बी सो जाइ, सागर एक प्रयन्त रहा । असुरकुमार परी बहु धरै साइहि सहज आकर होइ पायो युव बहू गने को असी सह भव सीपे पार
नरकन मांहि लखावे बर ।।१२२ ।। भयो नीम तरु यस हजार ।। १२३
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संयोगवश वे भ्रष्ट हुए कच्छादि पाखण्डी राजा भगवान ऋषभदेव मे बन्ध-मोक्ष का स्वरूप सुनकर वास्तव में निर्मन्थ भावी हो गये। किन्तु मरीचि ने अपने मन में विचार किया कि, जैसे तनाव ने गृहादि का परित्याग कर तीनों जगत को आश्चर्य में डालने वाली पूर्व शक्ति प्राप्त की है, उसी प्रकार में भी अपने मत का प्रसार कर अपूर्व क्षमता हो सकता है। वस्तुतः मैं भी जगद्गुरू हो सकता हूं। यह मेरी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। इस प्रकार मान कषाय के उदय से वह अपने स्थापित मियामत से चित भी विरक्त नहीं हुआ। वह पापात्मा मूर्ख मरीचि त्रिदण्डी वेष धारण कर कमण्डलु हाथ में लेकर अपने शरीर को कष्ट देने में तत्पर हुआ वह प्रातः काल ठण्डे जल से स्नान कर कन्दमूलादि का भक्षण करता था। उसने बाह्यप्रहादि परिषद् के त्याग से धरने को सर्वत्र प्रसिद्ध किया। उसने अपने शिष्यों को सत्य मत को इन्द्रजाल के समान बताया। किन्तु मिथ्या मार्ग का घराणी वह भरत राजा का पुत्र मरीचि पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। वह अजान तप के प्रभाव सेवा नाम के पांच स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। वहां उसे दश सागर की आयु मिली उसे भोग्य सम्पदा भी प्राप्त हुई। देखो जय सिया तप के प्रभाव से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, तब सत्य तप के फल का क्या कहना अर्थात् उससे पूर्व फल मिलेगा। उसी अयोध्या नगरी में ही कपिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रो का नाम कालो था। उन दोनों के घर मरीचि का जीव स्वर्ग से चयकर जटिल नाम का पुत्र हुआ । पूर्व के संस्कारों के वश उसे वही मिथ्या मार्ग सुझा । वह सन्यासी होकर उसी कल्पित मिथ्या मार्ग का प्रचार करने लगा। उसे मूर्ख जन नमस्कार भी करते थे। पर पुनः प्रायु क्षय होनेपर मृत्यु
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१. वहां से फिर इसी भारत क्षेत्र के मन्दिर नाम के नगर में गौतम नाम के ब्राह्मण की कोशको नाम की स्त्री से अग्निमित्र नाग का पुत्र हुआ । यहाँ भी सांख्य मत का प्रचार किया।
२. संसार त्यागने के हेतु महेन्द्र नाम का चौथा स्वर्ग प्राप्त हुआ ।
३. त्रां से आकर मैं उक्त मन्दिर नाम के नगर में सांकलायन नाम के ब्राह्मण की मदिरा नाम की पत्नी में भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ । पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण त्रिदण्डी दीक्षा ग्रहण की।
४. तप के प्रभाव से देवायु का बंधकर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ ।
५ स स्थावर नर्क और निगोद
आग में कूदना, विष का सेवन करना, समुद्र में डूब मरना उत्तम है, किन्तु मिध्यात्व सहित जीवित रहना कदाचित उचित नहीं है । सर्व तो एक जन्म में दुःख देता है, लेकिन मिथ्यात्व जन्म-जन्मान्तर तक दुःख देता है। मिथ्यात्व के प्रभाव से जीव नरक तक में भी दुःख का अनुभव नहीं करता, किन्तु दूसरे अधिक बुद्धियों वाले देशों की उत्तम विभुतियों को देखकर ईर्ष्या भाव करने, महासुखों के देने वाली देवाङ्गनाओं का वियोग होने तथा आयु के समाप्त होने से छः महीने पहले माला मुरझा जाने से मिध्यादृष्टि स्वर्ग में भी दुःख उठाता है। मृत्यु के छः महीने पहले मेरी भी माता सुरजा गई वो इस भय से कि मरने के बाद न मालूम कहा जन्म होगा ? ये स्वर्ग सुख प्राप्त होगे या नहीं ? अत्यन्त शोक और रुचन किया, जिसका फल यह हुआ कि स्वयं स्वर्ग की आयु समाप्त होते ही मैं निगोद में आ पड़ा। अनन्तान्तों वर्षों तक वहां के दुःख उठाकर वर्षो तक वहां के दुःख भोगे, फिर एकइन्द्रीय वनस्पति काय प्राप्त हुई। कई बार मैं गर्भ में आया और वह गर्भ गिर गये ।
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