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तत्कालीन अन्य दिगम्बर मुनि गण सं०१४६२ में ग्वालियर में महामुनि श्री गुण कोतिजी प्रसिद्ध थे । मेदपाद देश में सं० १५३६ में थी मुनि रामसेन जी के प्रशिष्य मुनि सोमकीति जी विद्यमान थे और उन्होंने 'यशोधर चरित' की रचना की थी। थी 'भद्रवाह चरित' के कर्ता मुनि रत्ननन्दि भी इसी समय हुए थे। वस्तुतः उस समय अनेक मुनिजन अपने दिमम्बर वेष में इस देश में विचर रहे थे।
लोदी सिकन्दर निजामखाँ और दिगम्बराचार्य विशालकीति लोदी खानदान में सिकन्दर (निजामखाँ) नादशाह सन् १४८६ में राजसिंहासन पर बैठा था। हमसमठ के गुरु श्री विशालकीति भी लगभग इसी समय हुए थे। उनके विषय में एक शिलालेख से पाया जाता है कि उन्होंने सिकन्दर बादशाह के समक्ष वाद किया था। यह वाद लोदी सिकन्दर के दरवार में हया प्रतीत होता है । अत: यह स्पष्ट है कि दिगम्बर मुनि तब भी इतने प्रभावशाली थे कि वे बादशाह के दरबार में भी पहुंच जाते थे।
तत्कालीन विदेशी यात्रियों ने विगम्बर साधुनों को देखा था जैन साहित्य के उपरोक्त उल्लेखों की पूष्टि अजैन श्रोत से भी होती है। विदेशी यात्रियों के कथन से यह स्पष्ट है कि गुलाम से लोदी राज्यकाल तक दिगम्बर जैनमुनि इस देश में बिहार और धर्मप्रचार करते रहे थे । देखिए तेरहवीं शताब्दी में यूरोपीय यात्री मार्को पोलो (Morco Polo) जब भारत में पाया तो उसे ये दिगम्बर साधु मिले । उनके विषय में वह लिखता
_ "कतिपय योगी मादरजात नंगे घमते थे, क्योंकि, जैसे उन्होंने कहा, बे इस दुनिया में नंगे आये हैं और उन्हें इस दुनियां की कोई चीज चाहिये नहीं । खासकर उन्होंने यह कहा कि हमें शरीर सम्बन्धी किसी भी पाप का भान नहीं है और इसलिये हम अपनी नंगी दशा पर शरम नहीं पाती है, उसी तरह तम अपना मह और हाथ नंगे रखने में नहीं शरमाते हो। तुम जिन्हें शरीर के पापों का भान है, यह अच्छा करते हो कि शरम के मारे अपनी नग्नता ढक लेते हो।"
इस प्रकार की मान्यता दिगम्बर मुनियों की है। मार्कोपोलो का समागम उन्हीं से हुशा प्रतीत होता है । वह उनके संसर्ग में आये हुए लोगों में अहिसा धर्म की बाहुल्यता प्रकट करता है। यहां तक कि वह साग-सब्जी तक ग्रहण नहीं करते थे। सूखे पत्तों पर रखकर भोजन करावे इन में गो-तसला होनः मागरे । हैबेल सा. गुजरात के जेनों में इन मान्यताओं का होना प्रकट करते हैं। किन्तु वस्तुतः गुजरात ही क्या प्रत्येक देश का जैनी इन मान्यतानों का अनुयायी मिलेगा । अतः इसमें सन्देह नहीं कि मार्को पोलो को जो नगे-साधु मिले थे, वह जैन साधु ही थे।
अलबरूनी के आधार पर रशीदुद्दीन नामक मुसलमान लेखक ने लिखा है कि "मलावार के निवासो सब ही श्रमण हैं और मूर्तियों की पूजा करते हैं। समुद्र किनारे के सिन्दबूर, फकनूर, मजरूर, हिलि, सदर्स जंगलि और कुलम नामक नगरों
१. जैहि०, भा० १५ १० २२५
२. 'नदीतटायगच्छे वंशे श्रीगमसेन देवस्य जातोगुणाणं व श्रीमांश्च भीमसेवेति । निगितं तस्य शिष्येण श्री यशोघर राज्ञिक श्री सोमकीर्ति मुनिनानिशोदपाधीपतांबूचावर्षेषट विषशंसपेलिथिपरिगणनायुवतं संवत्सरोति पंचभ्या पोपतष्णदिनकर दिवसे चोत्तरास्पद चन्द्र ॥इत्यादि।" ३. Oxford., p. 130
४. मजन्मा० १० १६३ व ३२२ ५. Some Yogis went stark naked, because, as they said, they had come naked into the world and desired nothing that was of this world 'Moreover, they declared. "we have no sin of the flesh to be conscious of, and, therefore, we are not ashamed of our nakedness, any more than you are to show your hand or face. You, who are conscious of the sins of the flesh, do well to have shame and to cover your nakedness."
-Yule's Morco Polo, I], 366 and HARI, p. 364 & Morco Polo also noticed the customs, which the orthodox Jaina community of Gujerat maintains to the present day. They do not kill an animal on any account, not even a fly or a flea, or a louse, or anything in fact that has lifc, for they say, these have all souls and it would be sin to do so' (Yule's Morco polo. II 366)
-HARI., p. 365
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