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कि उन्होंने खिलजी बादशाह अलाउद्दीन से सम्मान पाया था' । इतिहास से प्रगट है कि अलाउद्दीन धर्म को परवाह कुछ नहीं करता था। उस पर राधो और चतन नामक ब्राह्मणों ने उसको ओर भो बरगला रक्खा था । एकदा उन्हीं दोनों ने बादशाह को दिगम्बर मुनियों के विरुद्ध कहा सुना और उनकी बात मान कर बादशाह ने जैनियों से अपने गुरु को राजदरबार में उपस्थित करने के लिये कहा । जैनियों ने नियत काल में प्राचार्य माहबसेन को दिल्ली में अस्थित पाया। उनका विहार दक्षिण को पोर से वहां हुआ था।
सुल्तान अलाउद्दीन और दिगम्बराचार्य प्राचार्य माहवसेन दिल्ली के बाहर श्मशान में ध्यानारूढ़ तिष्ठे थे कि वहां एक सर्प-दंश से अचेत सेठ-पत्र दाह-कर्म के लिये लाया गया। प्राचार्य महाराज ने उपकार भाव से उसका विष-प्रभाव अपने योग-बल से दूर कर दिया। इस पर उनकी प्रसिद्धि सारे शहर में हो गई । बादशाह अलाउद्दीन ने भी यह सुना और उसने उन दिगम्बराचार्य के दर्शन किये । बादशाह राजदरबार में उनका शास्त्रार्थ भी षट्दर्शन वादियों से हमा; जिसमें उनकी विजय रही। उस दिन महासेन स्वामी ने पन बार स्यावाद को प्रखण्ड ध्वजा भारत वर्ष की राजधानी दिल्ली में आरोपित कर दी थी।
इन्हीं दिगम्बराचार्य की शिष्य परम्परा में विजयसेन, नयसेन, श्रेयांससेन, अनन्तकौति, क्षेमकीति, श्रीहेमकीन कुमारसेन, हेमचन्द्र, पद्मनन्दि, यश:कोति, त्रिवभुनकीति, सहस्रकीति, मही शन्द्र प्रादि दिगम्बर मुनि हुये थे । इनमें श्रीकमलको जी विशेष प्रख्यात थे।
सुल्तान अलाउद्दीन का अपरनाम मुहम्मदशाह था। सन् १५३० ई० के एक शिलालेख में मुनि विद्यानन्द के पकपरम्परा में श्री प्राचार्य सिंहनन्दिका उल्लेख है । बह बड़े नैयायिक थे और उन्होंने दिल्ली के बादशाह महमूद सूरित्राण की सभा में बौद्ध व अन्यों को वाद में हराया था। यह बात उक्त शिलालेख में है। यह उल्लेख वादशाह अलाउद्दीन के सम्बन्ध में हमा प्रतिभाषित होता है।'
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि वाटयाह बालाजद्दीन सिगर निगाजर गुनियों को विशेष सम्मान प्राप्त हआ था दिल्ली के श्री पूर्णचन्द्र दिगम्बर जैन श्रावक की भी इज्जत अलाउद्दीन करता था और उसने श्वेताम्बराचार्य श्री रामचन्द्र सरि को कई भेटें प्रपंण की पी। सच बात तो यह है कि अलाउद्दीन के निकट धर्म का महत्व कुछ न था। उसे अपने राज्य काही एक मात्र ध्यान था-उसके सामने बह 'शरीअत' को भी कुछ न समझता था । एक दफा उसने नव-मुस्लिमों को तोपदम करा दिया था। हिन्दनों के प्रति वह ज्यादा उदार नहीं था और जैन लेखकों ने उसे 'खूनी' लिखा है। किन्तु पलाउद्दीन में 'मनुष्यत्व' था। उसी के बल पर वह अपनी प्रजा को प्रसन्न रख सका था और विद्वानों का सम्मान करने में सफल या या
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- - १. "(the Jain) Acharyas' by their character attainments and scholarship.........com. manded the respect or even Muhammadun Sovereignis like Allauddin and Auranga Padusha (Aurangazeb)."
SSJ., Pt. I p. 132 २. जैसिभः०, भा० १ कि. ४ गृ० १०६ ३. ]bid.
४. Oxford. p. 130 ५. मजैस्मा०प० ३२२, 'सुल्तान' शब्द को जैनाचार्यों ने सूरित्राण लिखकर बादशाहों को मुनिरक्षक प्रकट किया है। ६. जंहि०, भा० १५ पृ० १३२ 3. जंध०, पृ० १६८
5. flc (Alauddnin) was by nature cruel and implacablo, and his only care was the welfare of his kingdom. No consideration for religion (Islam). ever troubled him. He disreBarded the provisions of the Law".."He now gave commands that the race of "New-Muslims" should be disiroyed."-. Tarikh-i-Firozshahi."
-Elliot, III. p. 205 ६. सुस्तान अलाउदीन ने शराब की बिक्री रुकवा दी थी। नाज, कपड़ा यादि बेहद सस्ते थे। उसके राज में राजभक्ति की बाहल्यता थी। विद्वान काफी हुए थे । (Without the partronage of the Sultan many learned and great men flourished )
-Eliot., 11 206
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