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सचमुच प्रारम्भ में मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्तान को बेतरह तबाह किया; किन्तु जब उनके यहां पर पैर जम गये और वे यहां रहने लगे तो उन्होंने हिन्दुस्तान का होकर रहना ठीक समझा। यहां की प्रजा को संतोषित रखना उन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य माना । बाबर ने अपने पुत्र हुमायूं को यही शिक्षा दी कि “भारत में अनेक मतमतान्तर हैं, इसलिये अपने हृदय को धार्मिक पक्षपात से साफ रख और प्रत्येक धर्म की रिवाजों के मुताबिक इन्साफ कर" परिणाम इसका यह हसा कि हिन्दुनो और मसलमानों में परस्पर विश्वास और प्रेम का बीज पड़ गया। जनों के विषय में प्रो० डा. हेल्मथ वॉन ग्लाजेनाप कहते हैं कि "मसलमानों और जैनों के मध्य हमेशा वैर भरा सम्बन्ध नहीं था.' (वरिक) मुसलमानों और जैनों के बीच मित्रता का भी संबंध रहा है।" इसी मंत्रीपूर्ण संबंध का ही यह परिणाम था कि दिगंबर मुनि मुसलमान बादशाहों के राज्य में भी अपने धर्म का पालन कर सके थे।
ईसवी इसबीं शताब्दि में जब अरब का सौदागर सुलेमान यहाँ पाया तो उसे दिगंबर साधु बहु-संख्या में मिले थे, यह पहले लिखा जा चका है। गज यह कि मुसलदाना पाते हो कहां पर नंगे दरवेशों को देखा । महमूद गजनी (१००१) और महमद गौरी (११७५) ने अनेक बार भारत पर आक्रमण किये; किन्तु वह यहाँ ठहरे नहीं। ठहरे तो यहां पर 'गुलाम खानदान' के सुल्तान और उन्हीं से भारत पर मुसलमानी बादशाहत की शुरुआत हुई समझना चाहिये। उन्होंने सन् १२०६ से १२६० ई. तक राज्य किया और उनके बाद खिलजी, तुगलक और लोदी वंशों के बादशाहों ने सन् १२६० से १५२६ ई० तक यहाँ पर शासन किया ।
मुहम्मद गौरी और दिगम्बर मुनि इन बादशाहों के जमाने में दिगम्बर मुनिगण निर्वाध धर्म-प्रचार करते रहे थे, यह बात जैन एवं अन्य श्रोतों से स्पष्ट है। गुलाम बादशाहों के पहले ही दिगम्बर मुनि सुल्तान महमूद का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर चुके थे। सुल्तान महम्मद गोरी के सम्बन्ध में तो यह कहा जाता है कि उसकी बेगम ने दिगंबर प्राचार्य के दर्शन किये थे । इससे स्पष्ट है कि उस समय दिगंबर मुनि इतने प्रभावशाली थे कि वे विदेशी आक्रमणकारियों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में समर्थ थे।
गुलाम बादशाहत में दिगम्बर मुनि गुलाम बादशाहत के जमाने में भी दिगंवर मुनियों का अस्तित्व मिलता है। मूलसंघ सेनगण में उस समय श्री दुर्लभ सेनाचार्य, श्री धरसेनाचार्य, श्रीषण, श्री लक्ष्मीसेन, श्रीसीमसेन प्रभूत मुनिपुंगव शोभा को पा रहे थे । श्री दुर्लभसेनाचार्य ने अंग कलिंग, कश्मीर, नेपाल, द्राविड़, गौड़, केरल, तैलग, उडू ग्रादि देशों में विहार करके विधर्मी प्राचार्यों को हतप्रभ किया था । इसी समय में श्री काष्ठासंघ में मनि श्रेष्ठ विजयचन्द्र तथा मुनि यश कीर्ति, अभयकीर्ति, महासेन, कुन्दकीर्ति, त्रिभुवन चन्द्र, राम सेन प्रादि हुये प्रतीति होते हैं ! ग्वालियर में श्री अकलंकचन्द्र जी दिगंबर वेष में सं० १२५७ तक रहे थे।
खिलजी, तुगलक और लोदी बादशाहों के राज्य और दिगम्बर मुनि खिलजी, तुगलक और लोदी बादशाहों के राज्यकाल में अनेक दिगंबर मुनि हुए थे । काष्ठासंघ में श्री कुमारसेन, प्रतापसेन, महातपस्वी माहवसेन प्रादि मुनिगण प्रसिद्ध थे । महातपस्वी श्री माहबसेन अथवा महासेन के विषय में कहा जाता है
१. DJp 66 ond जब०, पृ०, ६८ २. Oxford. pp. 109-130
३. 'अलकेश्वरपुराभरवच्छनगरे राजाधिराज परमेश्वर यवन रायशिरोगरिंग गहम्मदबादशाह सुर घाणसमरया पूर्णादखिलदष्टिनिपातेनाष्टादश वर्षधायप्राप्तदेवलोकधीश्रुतवीरस्वामिनाम् ।"-- अर्थात्-- 'अलकैश्वसुर के भरोचनगर में राजेश्वर स्वामी यवन राजाओं में श्रेष्ठ महम्मद वादशाह के कारण समस्या की पूर्ति से तथा इष्ट होने से १८ वर्ष की अवस्था में स्वर्ग गए हुए थी शुनवीर स्वामी हुए ।
--जैसिभा, भा० १ कि २-३ पृ० ३५ ४. IA., Vol.XXIp.361.--."Wife of Muhammad Ghori desired to see the Chief of the Digambaras,"
५. जैसिभा , भा० १ कि० २-३ प० ३४ ६. Tbid., किरण ४ पृ० १०६ ७. वृजश०, पृ० १०