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एलोरा की गुफात्रों में दिगम्बर मुनि ईस्वी पाठवीं शताब्दि की निर्मित एलोरा की जैन गुफायें भी उस समय दिगम्बर मनियों के विहार और धर्म प्रचार को प्रगट करती हैं। वहां की इन्द्र सभा नामक गुफा में जैन मुनियों के ध्यान करने पोर उपदेश करने योग्य बाई स्थान हैं और उनमें अनेक नग्न मूर्तियां अंकित हैं। श्रीवाहुबलि गोमट्टस्वामी को भी खगासन मूति है। "जगन्नाथसभा". - 'छोटा कैलास" आदि गुफायें भी इसो ढंग की हैं और उनसे तत्कालीन दिगम्बरत्व बी प्रधानता का परिचय मिलता है।
राट्टराज प्रादि के शिलालेखों में दिगम्बर मुनि सौंदत्ति (बेलगाम) के पुरातत्व में दिगम्बर मुनियों की मूर्तियां और उनका वर्णन मिलता है । वहाँ एक आठवीं शताब्दि का शिलालेख है, जिससे प्रकट है कि "मलेयतीर्थ की कारेयशास्त्रा में प्राचार्य श्री मूल भट्टारक थे, जिनके शिष्य विद्वान गणकीति थे और उनके शिष्य इच्छा को जीतने वाले श्री मुनि इन्द्रकीर्ति स्वामी थे, उनका शिष्य मेरड़ का बड़ा पुत्र राजा पृथ्वीवर्मा था, जिसने एक जनमंदिर बनवाया था और उसके लिये भूमि का दान दिया था। एक दूसरे सन् १८१ के लेख से विदित है कि कुन्दुर जैन शाखा के गुरु अति प्रसिद्ध थे; उनको चौथे राट्ट राजा शांत ने १५० मत्तर भूमि उस जनमन्दिर के लिये दी जो उन्होंने सौंदत्ति में बनवाया था और उतनी ही भूमि उसी मन्दिर को उनकी स्त्री निजिकदवे ने दी थी । उन दिगम्बराचार्य का नाम थी बाहुबलि जी था और वे व्याकरणाचार्य थे। उस समय श्री रविचन्द्र स्वामी, अर्हनन्दी, शुभचन्द्र, भट्टारकदेव, मौनीदेव, प्रभाचन्द्रदेव, मुनिगण विद्यमान थे । राजाकत्तम की स्त्री पद्मलादेवी जैनधर्म के ज्ञान व श्रद्धान में इन्द्राणी के समान थी । वह दिगम्बर मुनियों की भक्ति में दृढ़ थी।
चालल्य राजा विक्रम के लेख में दि० मनियों का उल्लेख एक अन्य लेख वहीं पर चालुक्य राजा विक्रम के १२ वें राज्य-वर्ष का लिखा हुआ है, जिसमें निम्नलिखित दिगम्बराचार्यों के नाम दिये हुये हैं :
"बलात्कारगण मनि गुणचन्द, शिष्य नयनंदि, शिष्य श्रीधराचार्य, शिग्य चन्द्रकीति, शिष्य थीधरदेव, शिष्य नेमिचन्द्र और वासुपूज्य विधदेव, वासुपूज्य के लघुभ्राता मुनि विद्वान मलपाल थे। वासुपूज्य के शिष्य सर्वोत्तम साध पद्मप्रभ थे। सेरिंगकावंशका अधिकारी गुरु वासुपूज्य का सेवक था ।"
इस प्रकार उपरोक्त लेखों से सौंदत्ति और उसके आस-पास में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य और उनका प्रभावशालो तथा राज्यमान्य होना प्रकट है।
राठौर राजाओं द्वारा मान्य दिल मुनियों के शिलालेख गोबिन्दराय तृतीय राठौर मान्यखेट के सन् ८१३ के ताम्रपत्र से प्रगट है कि गंगवंशी चाकिराज की प्रार्थना पर उन्होंने विजयकीर्ति कुलाचार्य के शिष्य मुनि अर्ककोति को दान दिया था। प्रमोघवर्षे प्रथम ने सन् ८६० में मान्यखेट में देवेन्द्रमुनि को भूमिदान किया था । इनसे दिगम्बर मुनियों का राठौर राजाओं द्वारा मान्य होना प्रमाणित है।
मूलगुड के पुरातत्व में वि० संघ मुलगंड (धारवाड़) का बी-१० शताब्दि का पुरातत्व भी वहां पर दिगम्बर मुनियों के प्रभुत्व का द्योतक है। वहां के एक शिलालेख में वर्णन है कि "चीकारि, जिसने जैन मन्दिर बनवाया था, उस के पुत्र नागार्य के छोटे भ्राता आसार्य ने दान किया । यह प्रासार्य नीति और धर्मशास्त्र में बड़ा विद्वान था । इसने नगर के व्यापारियों को सम्मति से १००० पान के बक्षों के खेत को सेनवंश के प्राचार्य कनकसेन की सेवा में जनमन्दिर के लिये अर्पण किया था। कनकसेनाचार्य के गरु श्री वोर सेनस्वामी थे, जो पूज्यपाद कुमार सेनाचार्य के दिगम्बर मुनियों के संघ के गुरु थे, चन्द्रनाथ मन्दिर के शिलालेख से मलगंड के
१. Ibid., pp. !63-171 २. बंता जैस्मा०, पृ०८३-८६ ३. भाप्रार, भा०३ पु०३०-४१
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