________________
लगत पाच गिर परत फेर उठके लरे। स्वामि काज निज धर्म विचार हिये धरै ।। विना शुण्ड गज कोइकः कटि कटिबी गिर। पैदल और तुरंग सबै वेघर फिर ॥११४॥ ज्यों बर्षात पाय नीर सरिता बड़े। त्यों रण सिंधू समान रकत लहर चहै ।। कायर वहि यहि जाय सूर पहिरत फिर। टूट-ट रथ कवच प्रोय धरनी गिरें ।।११।।
चौपाई होइ युद्ध इहि विधि अधिकार, लरै सुभटसों सुभट अपार । प्रतिहार केशव सन्मुख लरें, विद्या वेद परस्पर करं ॥११६।। प्रतिहरि हरि प्रति बाल्यौ एम, सुनरै बालक मो वच जेम । स्वयंप्रभा अब हमको बेऊ, निश्चल अपनी राज करेऊ ॥११७|| नातर अब छेदों तुभ काय, बीध्यौ हैं जम कातर पाय । कोपत मोहि सुरासर डर, भूपति को सम्मुख मुहि लर।।११।। तव केशव हंसि ऐसी कही, अनुचित बात कही तुम यही । नाम सम्हारन अपनी करै राजनकी क्या समसर करै ।।११।। विन लमाम तं चाहत ग्रीब, यातं बात कहत तज सीव । अश्वग्रीव यह सुनि परजयों, मानों अग्नि महावृत पयौँ ।। १२०।। तबहि चक्र कर लियो उठाय, सहस बार शोभा अधिकाय । दुर वच कहिषाल्यौ रिस पाय, चल्यो मंदगति अरुण सभाय।।१२१ बीन प्रदक्षिण तीनी ताय, फिर दक्षिण भज बैठयो प्राय । पुण्य पाप केशव को जान, तोन खण्ट लक्ष्मी वश मान ।। १२२।।
तिपाठ बोल्यो नरराव, मी पद नम तं निजपुर जाव । सुखविलास बहुमानन्द करो, हमरी प्राज्ञा निशदिन धरो।।१२३ अवयोव सन कोहि चढ्यो, मानो सिन्धु लहरसो बढ्यो । रे भूचर तं दीन अपार, गरजत कहा चूक मद धार ।। १२४।। को गोरख सहस नरेश, मोपद नमैं धर उपदेश । स्वयंप्रभा अब अर्को मोहि, नातर हनौं निरन्तर तोहि ।।१५।। तब त्रिपष्ट कोप्यो मन धोर, चक्र फिरायो अंगुल जोर। सत चूकं करवाई ताहि, घालप रिपु शिर छेदी जाहि १२६।। मतक भयौ, रौद्र ध्यान सौ नरक हि गयौ । बहु प्रारम्भ परिग्रह जोग, पूरब किये अशुभ तिन भोग ।। १२७॥
दोहा महा पाप के उदयसों, गयो सप्तमें भूर । संपूरन दुख तह सह, रहें सूक्ख सब दूर ॥१२॥
चौपाई
अब त्रिपष्ट जग में विख्यात, निजित जस पायौ अबदात । साध चक्र-रत्नकर जान, तीन खण्ड नरपति प्रस्थान ||१२३।।
राति भपति व्यन्तर देव, प्रणमें चरण कमल कर सेव । सार वस्तु सय अर प्राय, कन्यारत्न प्रादि सूखदाय ॥१३॥ विजयारधकी श्रेणी दोय, दीनी ज्वलनजटी को सोय । बहुत विभूति भई हरिगेह, दलखंड विधिवत मण्डित नेह।। १३१॥ दश दिश जीत भये श्रीमान, पुण्यवंत बहु जग परधान । अपने घर बहु लीला कर, त्रिया सहित सुखसौ ब्यौपरै ।।१३।।
अश्वग्रीव ही कब मानने वाला था उसने त्रिपुष्ट को मारने के उद्देश्य से शस्त्र चक्ररत्न को चलाया पर वह चक्र त्रिपष्ट के महान पुण्योदय से उनकी प्रदक्षिणा देकर उनको दाहिनी भुजा पर पाकर विराजमान हो गया। इसके पश्चात् त्रिपुष्ट ने भी तीन खण्ड की लक्ष्मी को अपने प्राधीन करने वाले अपने चक्ररत्म को अश्वग्रीव पर चलाया। उस चक्र से अश्वग्रीव की मध्य हो गई। बह रौद्र परिणाम तथा पारम्भ परिग्रह के फल स्वरूप मरकायु बांध कर मरा था, इसलिये वह बैद्धि महापाप के उदय से सातवें नरक में गया, जो समग्र दुःखों की खानि है । वहाँ सर्वथा दुःख हैं और वह घृणित स्थान है।
ढस यद में विजय प्राप्त कर लेने के कारण त्रिपष्ट की सारे संसार में ख्याति फैली। उसने चक्ररत्न से तीन खण्डवत राजानों को अपने प्राधीन कर लिया। विद्याधरों के स्वामी मागधादि राजाओं तथा व्यन्तरादि पतियों ने भयभीत होकर त्रिपष्ट को अपनी कन्याय तथा भेट में बहुमूल्य बस्तुएं प्रदान की। त्रिपृष्ट ने विजयाध के दोनों मोर के राज और उसकी ऋदियाँ रथनपूर के राजा ज्वलनजटी को सौंप दी और स्वयं बड़ी विभूति के साथ अपने नगर में प्रस्थान किया। पूर्व के