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सोरठा
अब इनको करजोर, अठतिसशय अरु छय अधिक । अरु श्लोकन
जोर, पट सहस्र परवान मिति ।।३२६॥
दोहा ऊर्जयन्त विक्रय नपति, सम्वत सरगत तेह । सत अठार पच्चिस अधिक, समय विकारी ऐह ।।३३०॥ द्वादश मैं सूरज गनी, द्वादश प्रश हिऊन । द्वादशमी मासहि मनी, सुकल पक्ष तिथि पूर्न ।।३३१।। द्वादश नरवत बखानिये, बुद्धवार वृष जोग । द्वादश लगन प्रभात मैं, श्री निन लेख मनोग ।।३३२।। ऋतु वसंत उर फल प्रति, फाग समय शुभ होय । वर्द्धमान भगवान, गुण ग्रन्थ सभापति कोय ।।३३३।।
अथ कवि लघुता वर्णन
वोहा द्रव्य नवल क्षेत्रहि नवल, काल नवल है और । भाव नवल भव नबल प्रति, बुद्धि नवल इहि ठौर ।।३३४|| काय नवल अरु मन नवल, बचन नवल विसराम । नव प्रकार सुत नवल यह नवलशाह कवि नाम ।।३३५!।
छप्पय
सारस्वत नहि पढ्यौ, काव्य पिंगल नहि सिख्यो । तरक छन्द व्याकरण, अमरकोष हि नहि दिस्यो। अल्पबुद्धि थिर नांहि, भक्तिवश भाव बढ़ायौं द्रव । जिन मतके अनुसार, ग्रन्थको पार लगायो । बुद्धिवन्त सज्जन बिनय, हास्यभाव मत कोई करो। तुकहीन छन्द जो पमिल जी, तो विचार अक्षरों धरौं ।।३३६॥
गीतिका
कौति जस महि चाह मेरे, लाभ लालच उर नहीं । कबिस्व छन्द न मान मनमें, तुच्छ बुद्धि मुझ है सही॥ ग्रन्थ परमारथ प्रकाशक, स्वपर कारज हित कियो । करम हानि निमित निहर्च, आत्मापत थिर लियौ ।।३३७।। वीर जिनबर चरित उत्तम भाव जुत जो सीखही । सुने जे नर त्याग चिन्ता, शुद्ध थिर मन राख हो ।। होइ आठौं सिद्धि नवनिधि, मन प्रतीति धरै सही । ज्ञान दरशन चरण प्रादिक, मुक्ति सामग्री यही ।।३३८॥ सकल तीर्थकर जु नायक गुण छयालिस जासुत । सिद्धि जगत निवार अनुपम, अष्ट मुणमय सासुते ॥ सूरि पंचाचार मडित, परम पाठक उर धरै । साधु जोग अभंग साधन, सदा मो मगल कर 11३३६।।
दोहा
पंच परम गुरु जुग चरण भविजन बुध जुत धाम । कृपावंत दीजै भगत, दास 'नवल' परणाम ||३४०॥
देवों के द्वारा पुजित हैं तथा स्वर्ग एवं मोक्ष के मूल कारण हैं उन प्रभुका यह उसम एवं पवित्र चरित्र, जब तक कि इस धरातल पर से काल का अन्त न हो जाय तब तक आर्यखण्डके सभी स्थानों में इसका प्रचार हो, प्रसिद्धि हो, और संस्थिति रहे । यही मेरी मनोकामना है। प्रभु ने स्वर्ग एवं मोक्ष देने वाले निर्दोष अहिमामय उत्तम धर्म का उपदेश मुनि श्रावक भेद मे किया है वह परम' सुखदायक धर्म जब तक पृथ्वी पर है तब तक निश्चय रूपेण रहेगा । पवित्र धर्म के उपदेष्टा एवं व्याख्याता शीघ्र अन्त कर दें। बहुत विशेष न कहकर इतना ही कह देना पर्याप्त है कि मेरे द्वारा श्रद्धाभक्ति-पूर्वक संस्तुत श्रीमहावीर प्रभु लोभी को भी अपने ही समान अदभुत अनुपम एवं सर्वोत्तम गुणों को सुख एवं मुक्ति प्राप्ति के लिये प्रदान करें। इस चरित्रमें ग्रन्थ संख्या के अनुसार कुल तीन हजार पैतीस श्लोक हैं । शुभमस्तु ।