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मध्यलोक के अन्तर्गत ज्योतिलक का वर्णन ।
चौपाई
जीन
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अब ज्योतिष को सुन विरतंत, बिन श्राश्रय नम मांहि बसंत । सूर्य-चन्द्र ग्रह नखत जु तार, बहु कुटुम्ब जुत पंच प्रकार || २३४|| मध्यलोक पृथ्वी से जान, कंचो जोजन महा प्रमान सात शतक नई तर तिहि सूरज दक्ष अधिकार ।। २३५।। सं जोजन सी सूर्य से चन्द्र वह चार नसत सब बुन्द लिहितं बुध जोजन च तुंग बहते शुक्र तीन गुणयुग || २३६|| गुरु मंगल शनि ग्रह तीन तीन तीन ऊपर गत रत्नजडित सबके जु विमान पन्थ चलें मेष पर जान ॥ २३७॥ ये तिति कोड प्रणू भुवि विरं कुमति कहें देव यह राहू केतु दो यह पूनिया, निकट रहें रवि शशि के धाम ।। २३५ ।। जोजन एक श्रमो से चलें रवि शशि इनके ऊपर भलै । शशि अरु केतु दोउ इक जोट, दव्यौ चलं छाया की प्रोट ॥२३॥ दिन दिन छाया छूट जाय, इक इक कला चन्द्र प्रगटाय । पुनके दिन केतन अङ्क, सोहत षोड़श कला मयंक || २४०॥ अंजन मणीभूमाल, सिहि प्रतिविम्व स्यामता घालताको निरखि कहें मतिमन्द, थाप्यो जगत कलंकी चन्द्र || २४१ ।। फिर परमा दावे के साया पड़े उपरिको तेल मावस के दिन सुनो प्रवीन, दोरी हिमकर कला विहीन ॥ २४२॥
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इहि विधि राहु केतु य सोम, तर अगर शशि दावे
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म समास राहु की छाह
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दायें सूरज कला जु ताह ॥ २४३॥ ग्रहण क स धनी लोग ताको भेद कहो घर जोग जब शशि सूरज सप्तम धान राहु सूर्य एक वेत निशन || २४४॥ चन्द्र ग्रहण ता जिसमें लसे जब पूनी गति परमा बसे श्रव सुन सूर्य ग्रहणको क्षेत्र, दार्य छाया राहु जु तेव ॥ २४५॥ आसनक्षत्रहि रवि को वास, बेही नखत समावस जात राहू मूर इक यान गने, परमा सरसी मिलिकं तेह ॥ २४६ ॥ सूरज गहन होय इमि रीत, छठ मास राहू पर नीत इहि विधि सत्य पदारथ सार, सरथो मन में कर विचार ॥ २४७॥ अब विमान को संख्या लाग, जोजन के इकसठ कर भाग छप्पन चन्द्रविमान भनेह सूरज बड़तालीस गनेह || २४८ || भृगु गुरु बुध मंगल शनि थान, किचित् ऊन कोश परमान र नारायण तु विशेष ॥२४६।। रतन पटहाकार वापर नए विभूति अपार से देव देवनि जुग नेक, जिन चैत्यालय मण्डित एक ॥२५० एक चन्द्र परिवार सुदीस ग्रह अठासी उमटवीस व तारागण गिनती जान, खाट सहस व मान ||२१|| पचहत्तर ऊपर पुनि सोय, इतने कोड़ाकोड़ी होय । भरतक्षेत्र कोड़ाकोड़ी होय भरतक्षेत्र तारागण सबै सात सया पंचोत्तर फ] ॥ २५२ ॥ ( एक चन्द्र तारा अंक -- ६६६७५००००००. 000000) (भरत क्षेत्र पर तारा अंक - ७०५००००००००००००००) इतने कोड़ा कोड़ि प्रमान, तितने दुगुन दुगुन पहिचान । भरत क्षेत्रतं दूने जोय, हिमवत पर्वत पर अवलोय ॥ २५३ ॥ हिमवनते हुने परमान, हिमवत क्षेत्रहि में जुबान क्षेत्रमवत कर दुगुन, मह हिमवन परयत पर वरन ॥ २५४॥ । ते हरिक्षेत्र हि नाहीतें दुन, तिनितें दुगुन निषद्ध हि भुन । तितने ही गण मेरुहि उरै, यह सब चन्द्र एक प्रति जुरें ॥२५५॥ यह विधि दुतिय चन्द्र परिवार ऐरावततं मे हि धार जम्बूद्वीप दोय रविजुता, भरत एक एक ऐरावता || २५६|| दिनकर जब हि विदेहन जाय, भरतेरावत न सहाय तिनहि मार्ग इक गहि छह मास उत्तरायण दक्षिणायन वास ।। २५७।।
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तीन जगत के पिता को उत्पन्न करने के कारण बाज तुम्हारी मान्यता सारे संसार में है तुम्हारी कीर्ति अक्षुण्य है, कारण सबके उपकार और कया के तुम्हीं दोनों भागी हो आज से तुम्हारा गृह बालय के सदा हो गया और गुरु के संबंध से तुम हमारे पूज्य और मान्य गुरु हो । इस प्रकार इन्द्र ने माता-पिता की स्तुति कर और भगवान को उन्हें सौंपकर सुमेरु की उत्तम कथा सुनाई। वे दोनों ही जन्माभिषेक की बातें सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । उनके श्रानन्द की सीमा न रही।
इंद्र की सम्मति से उन दोनों माता-पिता के बन्धु वर्ग के साथ भगवान का जन्मोत्सव सम्पन्न किया । सर्व प्रथम श्री जैनमन्दिर में भगवान की अष्ट द्रव्यों से पूजा की गयी । इसके पश्चात् ही बन्धुनों और दास-दासियों को अनेक प्रकार के दान दिये
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