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पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्री रूप जल की कटोरी और पुरुष के हाथ अदि का व्यापार उपादान कारण है। दिन रूप काल पर्यार.ही उत्सात्ति में सूर्गमा विनामार मारणारे वो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि जिस तरह चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न जो चावल पर्याय है उसके अपने उपादान कारण से प्राप्त गुणों के समान ही सफेद काले आदि वर्ण अच्छी या बूरी गन्ध चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श, मीठा प्रादि रस इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं। वैसे ही पूदगल परमाण मेत्र, पलक, बन्द करना और खोलना जल कटोरी पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्य का विम्ब रूप जो उपादान भुत पुदगल पर्याय है उनसे उत्पन्न हुये समय निमिष घड़ी काल दिन आदि जो पर्याय हैं उनको भी सफेद काला आदि गुण मिलना चाहिये । परन्तु समय घड़ी आदि में उपादान कारणों के कोई गुण नहीं दीख पड़ते। क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है, ऐसा वचन है । अत: यह कहना व्यर्थ है कि जो प्रादि तथा अन्त में रहित अमूर्त है, नित्य है समय आदि का उपादान कारण भूत है तो भी समय प्रादि भेदों से रहित है और कालाणु द्रव्य रूप है वह निश्चय काल है और जो प्रादि तथा अन्त से रहित है, समय, घड़ी, पहर आदि ब्यबहार के विकल्पों से युक्त है वह उसी द्रव्य काल का पर्याय रूप व्यवहार काल है। सारांश यह है कि यद्यपि यह जीव काल लब्धि के वश से अनन्त सुख का भोक्ता होता है तो भी विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव का धारक जो निज परमात्मा रूप के सम्यक श्रद्धान ज्ञान पाचरण और सम्पूर्ण भाव द्रव्यों की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण का धारक तपश्चरण रूप दर्शन ज्ञान चारित्र यथा तप रूप चार प्रकार की आराधना है वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जानना चाहिये । इससे काल उपादान कारण नहीं है । इसलिये वह काल द्रव्य त्याज्य है।
सप्त तत्व मुख्य तत्व दो प्रकार है एक जीव दुसरा मजीव-चेतन और अचेतन की पर्याय को विचार करते समय १ प्राश्रव, २ बंध, ३ संवर. ४ निर्जरा ५ मोक्ष ये पांच तत्व देखने में प्राते हैं। इससे कूल तत्व सात होते है।
पाथव-- पुद्गल द्रव्य का अणु के समूह आत्म प्रदेश को कर्म रूपी होकर बहते हुए जो कर्म आते हैं उसको प्रास्त्रव कहते हैं । जानावरणादि पुदगल कर्म प्रात्म प्रदेश की ओर खींचकर आने के निमित्त कारण ? से जीव के रागादिक विकल्प परिणामों को भावाथव कहते हैं।
जीव के रागादि परिणाम को निमित्त पाकर ज्ञानवरणादि कर्म आत्म प्रदेश में खींचकर आने को द्रव्याश्रव कहते हैं। कर्म समह के स्वरूप को जाने बिना सप्त तत्व का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं आता है। इसलिए उन कर्मों की जानकारी कर लेना अत्यावश्यक है।
अष्ट कर्म कर्म पुदगल के मुख्य पाठ विभाग किये गये है। एक-एक विभाग में अनेक विभाग हैं। जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र, और अन्तराय।
१-ज्ञानावरणी कर्म
श्रात्मा के सहज स्वरूप ऐसे ज्ञान के ऊपर बादल के समान बढ़कर उसको पावरण करता है। इसमें मतिज्ञानावरण श्रतिज्ञानावरण प्रवाधिज्ञानावरण, मन: पर्ययज्ञानावरण, केबल-शानावरण इस प्रकार से पांच भेद हैं। इनमें ज्ञानावरणीय कर्म सब से बलवान होने के कारण प्रात्मा की जानने की शक्ति को प्रावरण कर देता है।
२–दर्शनावणीय कर्म (The perception olstruction)
यह प्रात्मा के दर्शन गुण को प्रावरण करता है । इसमें चक्ष दर्शनावरण और अचक्षु दर्शनावरण, अबधि दर्शनावरण केबलदशनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि ऐसे नो भेद हैं। अर्थात् निद्रा पाना पुन: पुन: निद्रा में उठकर सोना फिर उठना और फिर सोना। निद्रा में नाक मुंह आदि से राल गिरना। स्वप्न में उठकर काम प्रादि करना। बड़बड़ करना । जगने के बाद उनको क्रम से निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि कहते हैं।
३. वेदनीय (Which regulates the experiences of pleasure and pains) ..
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