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नाना देश ग्राम पुरथान, गगन गमन विहरै भगवान । विश्व भव्य उपहार सु करें, जग जीवन को दुविधा हरै ।।१६॥ केहरि मग इक थान, बहोर, गाय वाघ निवौं अहि मोर | इत्यादिक जे ऋर जु होय, प्रानी वद्ध लहैं नहि कोय ॥१७॥ घाति कर्म जव हते जिनेश, अन अहार नहि भुगते लेश । पुष्टकर नोकर्म अहार, सुख अनन्त बोरज अधिकार ।।१८॥ द्वादश गण वेष्टित सरवंग, शत्रादिक पद नमहि अभंग । नर सुर असुर और तिरजेच, करै नहीं उपसर्ग प्रपंच ॥१९॥ चतुरानन चारहुं दिश थाय, तीन जगत जीवन सुखदाय । निज निज कोठा थिर समुदाय, सबही प्रभु सन्मुख लौ लाय ॥२०॥
न चराचर जान, विद्या विभव स्वामिता वान । दिव्य देह छाया बिन ऐन, पलसौं पल नहिं लागे नैन ।।२।। नख अरु केश वृद्धि नहि होइ, जितने थे तितने रहि सोइ। चार घातिया खय जब करे, ये दश अतिशय उत्तम धरै ।।२।। सब हित होइ मागधी भाष, सर्व अंगवर सुन अभिलाष । खिरं निरक्षर वानी सोइ, सकलाक्षर गभित पुन होइ ॥२३॥ सब जनको आनन्द करतार, उर संदेह निवारन हार । सब भाषामय परिणति कर, मधुर मनों अमृत धन भर ॥२४॥ दुविध धर्म प्रमटन सु विशाल', तत्य अर्थ सूचक गुणभाल । अहि नौरादिक वैर भुलाय, मंत्रीभाव करै सो आय ॥२५॥ सब ऋतु के फलफूल हि जास, प्रभुहि देखि तक होहि हुलास । जहं प्रागमन करे भगवान, दिपं भूमि दर्पणसी जान ॥२६॥ तीन जगत प्रभु निकटहि सेव, मंद सुगंध पवनकर देव । परमानन्द लहै सब जीव, तन मन शोक न उपजे सीव ॥२७॥ महतकुमार पवन अति लहै, इक जोजन तृण कीट न रहै। स्तनित कुमार भक्ति उर धार, पन्धोदक बरसाव सार ।।२।। हेम कमल दल केशर जोग, गमन समय सुर रचे मनोग। पंद्रह पंद्रह पक्ति प्रमान, सबादोइस सब उनमान ॥२६॥ अन्तरीक्ष प्रभु डग नहि धरै, अधोभाग लौं तहं विस्तरै। सब जिय सुख सन्तोष बढ़ाय, देश अबनि इमि लहै सुभाय ॥३०॥ समोशरण जिहि थानक होइ, दश ही दिश तहं निर्मल सोह। चतुरनिकाय देव समुदाय, हरि हलधर मिलि सेवै पाय ||३|| रत्नमयी दीपति अधिकार, एक सहम अति तीक्षण प्रार। मिथ्यारूपी तमको दल, धर्मचक्र प्रभु आगे चल ।।३शा दर्पणादि वस मंगल दर्व, सोहै अति मंगलबत सर्व । इहि विधि देव रचित प्रबंधार, वरण अतिशय दश अर चार ॥३311
दोहा
दश अतिशय प्रभु जनमके, दश केवल परकास । देव रचित चौदा कहै, सब चौतीस सुभास ॥३४॥ प्रातिहार्य बसु संग जुत, नंत चतुष्टय वंत । छयालीस गुण ये कहै, मंडित श्री अरहन्त ॥३॥
और तीनों लोकके स्वामियोंके द्वारा परम पूज्यनीय माने गये हैं। वे आपकी सेवा और स्तुति करने में अपना सौभाग्य समझते है। आपकी स्तुति करनेसे भव्य जीवोंके उत्कृष्ट पाप-मल दूर हो जाते हैं और मनके विशुद्ध हो जाने पर संसारकी सम्पूर्ण सख सम्पदाएं प्राप्त हो जाती हैं फिर कौन ऐसा है जो अभ्युत्थान चाहता हुआ भी प्रापको सेवा स्तुति न करें? जो कि विशिष्ट फल पाने की इच्छा करते हैं वे सभी मापकी स्तुति करने के लिए सदेव तत्पर रहते हैं। स्तुतिके चार अंग हैं १ स्तति २ स्तोता (स्तुति करनेवाला) जिसकी स्तुतिकी जाय, ३ स्तुत्य ४ फल । जिस वाणीके द्वारा गुण-सागर श्री महन्त देवके वास्तविक गुणों की प्रशंसाकी जाय उसे विचारवान पुरुषोंने स्तुति कहा है। जो अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान इत्यादि विविध उत्तमोत्तम गणों से यक्त है. वीतराग और त्रैलोक्य के नाथ हैं वे श्री जिनेन्द्रदेव ही सभी सज्जन महापुरुषोंके द्वारा परम स्तुत्य माने गये हैं। प्रभकी स्तुति करनेका साक्षात् फल तो परम पुण्यकी प्राप्ति है परन्तु अन्तमें अब सम्पूर्ण गुणोंकी प्राप्ति हो जाती है जो प्रभमें विधा. मान है। मैं सम्पूर्ण सामग्रियोंको पाकर आपकी स्तुति में प्रवृत्त हूं। अाप अपनी कल्याणमयो प्रसन्न दृष्टि से हमें पवित्र करनेकी कृपा करें। हे प्रभ, आज आपने अपने वचनरूपी किरणोंसे भव्योके ग्रान्तरिक मिथ्यात रूपी उस महा अन्धकारको भी दर कर दिया जिसे कि सर्यको किरण भी नहीं छ पाती । हे नाथ, जब आपने वचनरूपी तेज तलवारसे महि रूपी महा शत्रको मारा तब अपनी सेनाके साथ वह भाग खड़ा हुआ और जड़ मन एवं इन्द्रियों के आश्रय में जा छिपा । हे देव, जब पापका बचन रूपी वच्च कामदेव पर गिरा तब अन्याय इन्द्रिय रूपी चोरोंके साथ वह मरणासन्न अवस्थामें पड़ा हुआ है । हे ईश, जब आपके केवल ज्ञान
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