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होने से या क्षयोपशम होने से जो उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। किन्तु अप्रत्याख्यानावरण के उदय से जिसको अणव्रत भी नहीं होता वह अविरत सभ्यग्दिष्टि गुणस्थान है। यानि-व्रत रहित सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान वाला होता है। इस गुणस्थान वाला सांसारिक भोगों को विरक्ति के साथ भोगता है।
सम्यग्दृष्टि जीव की जब सप्रत्याख्यानाबरण कषाय, जिसका क्रोध पृथ्वी की रेखा के समान होता है के क्षयोपशम से अणुनत धारण करने के परिणाम होते हैं तब उसके देशविरत नामक पांचवां गणस्थान होता है । यह पाँच पापों का एक देश त्याग करके ११ प्रतिमानों में से किसी एक प्रतिमा का चारित्र पालन करता हैं।
दसणवय सामाइय पोसह सचित्सराइमते य।
बम्भारम्भपरिगह प्रणमण मुद्दिढ देसविरदो य॥ यानि-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरक्त, रात्रि भोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग ये पाँचवें गुणस्थान बाले की ११ प्रतिमायें (श्रेणियाँ) है।
धुलि की रेखा के समान प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि का क्षयोपशम हो जाने पर जब महानत का आचरण होता है, किन्तु जल रेखा के समान क्रोधादि वाली संज्वलन कषाय तथा नो कपाय के उदय से चारित्र में मैल रूप प्रमाद भी होता रहता है, तब छठा प्रमत्त गुणस्थान होता है। ४ विकथा (स्त्री कथा, भोजन कथा, राष्ट्र कथा, अवनपाल कथा), चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ,) ५ इन्द्रियाँ तथा नींद और स्नेह ये १५ प्रमाद है।
महाव्रती मुनि जब संज्वलन कषाय तथा नोकपाय के मंद उदय से प्रमाद रहित होकर प्रारमनिमग्न ध्यानस्थ होता है, तब अप्रमत्त नामक सातवाँ गुणस्थान होता है। इसके दो भेद हैं। १-स्वरथान अप्रमत्त (जो सासवें गुणस्थान में ही रहता है, ऊपर के गुणस्थानों में नहीं जाता) २-सातिशय जो ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है।
मनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ के सिवाय चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम करने के लिए अथवा क्षय करने के लिए श्रेणी चढ़ते समय जो प्रथम शुक्लध्यान के कारण प्रति समय अपूर्व परिणाम होते हैं वह अपूर्ववरण नामक अाठवाँ गुणस्थान है।
अपूर्वकरण गुणस्थान में कुछ देर (अन्तमुहत) ठहर कर अधिक विशुद्ध परिणामों वाला नोंवा अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है। इसमें समान समयवर्ती मुनियों के एक समान ही परिणाम होते हैं। इस गुणस्थान में हनोकषायों का तथा अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण कषाय सम्बन्धी ऋोध मान माया लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, इन २० चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियों का उपशय या क्षय होकर केवल स्थल संज्वलन लोभ रह जाता है । इस गुणस्थान का समय भी अन्तमुहूर्त है।
तदनन्तर उससे अधिक विशुद्ध परिणामों वाला सूक्ष्म-साम्पराय नामक १० वां गुणस्थान होता है, इसमें स्थूल संज्वलन लोभ सूक्ष्म हो जाता है।
उपशम श्रेणी चढ़ने वाले मुनि १० वें गुणस्थान में अन्तमुहर्त रहकर तदनन्तर संज्वलन सूक्ष्म लोभ को भी उपशम करके ११वें गुणस्थान उपशान्त मोह में पहुंच जाते हैं। यहाँ पर उनके विशुद्ध यथाख्यात चारित्र हो जाता है. राग, द्वेष, क्रोध प्रादि विकार नहीं रहत, वीतराग हो जाते हैं। परन्तु अन्तमुहर्त पीछे ही उपशम हुआ सक्ष्म लोभ फिर उदय हो जाता है तब उपशांत मोह वाले मुनि उस ११ वें गुणस्थान से भ्रष्ट होकर श्रम से १० बें, व, पाद गुणस्थानों में प्रा जाते हैं।
जो मुनि क्षपक श्रेणी पर चढ़ते है वे १० वें गुणस्थान से सुक्ष्म लोभ का भी भय करके क्षीणमोह नामक १२ 4 गुणस्थान में पहुंच जाते हैं। वहां उन्हें वीतराग पद, विशुद्ध यथाख्यात बारित्र सदा के लिए प्राप्त हो जाता है । उन्हें उस गुणस्थान से भ्रष्ट नहीं होना पड़ता।
८ से १० वें गुणस्थान तक उपशम-थेणी तथा ८ वें गुणस्थान से १२ वें गुणस्थान तक (११वं गुणस्थान के सिवाय) क्षपक श्रेणी का काल अन्तमुहर्त है और उनके प्रत्येक गूणस्थान का काल भी अन्तम हत है अन्तमहत के छोटे-बड़े
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