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सात पैड मागे दे राइ, प्रभु हि प्रणाम कियौ हरपाइ । बहुत दान बनपाल हि दियौ, राजा उर आनन्दित भयो ।४३|| अानन्द भेरी नगर दिवाइ, हय गय रथ पय दलहि सजाइ। सुत त्रिय बांधव पुरजन साथ, चल्यो चतुर श्रेणिक नरनाथ ॥४४|| पायौ शोध न लाई बार, समोशरण दोठयौ अबिकार । भक्तिभाव सब ही उर धरै, जय जयकार शब्द उच्चारै ।।४।। तीन प्रदक्षिण दे शिरनाइ, धूलीसाल प्रवेश्यो प्राइ । मानस्तंभ विलोक्यो जबे, गयो मान गलि तनत सर्व ।।४६|| क्रमकर तहं पहुंचे पुन जाइ, दरश वीरनाथ जिनराइ। भक्तिभाव जुत प्रनमै पाय, वर वेर भुवि शीस लगाय ॥४७॥ चरणकमल प्रभु पूर्ज राइ, अष्टद्रव्य जल प्रादिक लाइ । फिरकै नुप जिनवर पद नयो, भक्ति सहित अस्तवन जुठयो।।४।।
करनेमें प्रवृत्त हैं । हे नाथ, आप नित्यप्रति अलोक्य के भव्योंको सम्यक् दर्शन, ज्ञान, एवं चारित्र धर्मरूपी बहुमुल्य एवं अत्यन्त उत्तम रत्नोंको प्रदान करने वाले हैं। इन रत्नों के द्वारा सभी सुख-सम्पत्तियां एवं सर्वश्रेष्ठ पदार्थों को प्राप्त कर लिया जाता है। इसलिए हे देव, अापके समान कोई भी इस संसार में न तो धनवान् है और न कोई ऐमा महादानी ही है। यह समस्त संसार
बरसदेव की राजधानी कौशाम्बी (इलाहाबाद) में वीर समवशरण आया तो वहाँ के राजा शतानीक वीर उपदेश मे प्रभावित होकर जैन मुनि हो गये ।
लिगवेश (उड़ीसा) में समवशरण आया तो वहाँ के राजा जितशत्रु ने बड़ा आनन्द मनाया और सागराज-पाटयागकर जन साध हो गये थे । इस और के पुण्ड, बंग, ताम्रलिप्ति आदि देशों में भी वीर-बिहार हुआ था, जिससे वहां के लोग अहिंसा के उपासक बन गये थे।
हमांगदेश (मंसुर) में वीर- समवशरण पहुचा तो वहां के राजा जीवन्धर भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो, संसार त्यागकर जैन साध हो गये थे ।
अश्मकदेश की राजधानी पोदनपुर में वीर समवशरण आया तो वहां का राजा बिगदाण उनका भवत हो गया।
राजपताने में वीर समवशरमा के प्रभाव से वह राजारामा अहिंसा से बैन गये। यह भ. महावीर के प्रचार का ही फल है कि अपनी जान जोखिम में डालकर देश की रक्षा करने वाले आशशाह और भामाशाह जरो जैन सूरवीर योद्धा वहाँ हुए।
मालवादेश की राजधानी उज्जैन में वीर समवशरण पहुँचा तो वहां के सम्राट चन्यप्रद्योत ने बड़ा उत्साह मनाया था ।
सिन्धु सौवीर प्रवेश की राजधानी रोकनगर में वीर समवशरण पहुचा तो वहाँ के राजा उदान भ. महावीर के उपदेश मे प्रभावित होकर राज छोड़कर जैन मुनि हो गये थे।
दशार्ण देश में भ• महावीर का विहार हुआ तो वहाँ के राजा दशरथ ने उनका स्वागत किया ।
पांचालदेश की राजधानी कम्पिला में म० महावीर पधारे तो वहां का राजा "जय" उनसे प्रभावित होकर संसार त्यागकर जन साध हो गया था ।
सौर देश की राजधानी मथुरा में भ. महाचीर का शुभागमन हुआ तो वहाँ के राजा उदितोदय ने उनका स्वागत किया और उसका राजसेठ जैनधर्म का दृढ़ जपामक था, उसने भयवान् के निकट थावक के व्रत धारण किये थे।
गांधारदेश की राजधानी तक्षशिला तथा काश्मीर में भी भ० महावीर का विहार हुआ था । तिब्बत में भी धर्म प्रचार हुआ था।
विदेशों में भी १० महावीर का विहार हुआ था। श्रवण बेल्गोल के मान्य पण्डिताचार्य श्री चारुकीति जी तथा पंडित गोपालदास जी जसे विद्वानों का कथन है कि दक्षिण भारत में लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले बहुत से देनी अरब से आकर आबाद हुए थे। यदि भगवान जिन का प्रचार वहां न हुआ होता तो वहाँ इतनी बड़ी संख्या जैनियों की कैसे हो सकती थी ? थी जिनमेनाचार्य ने हरिबंशपूराण प. में जिन देशों में भ. महावीर का बिहार होना लिखा है उनमें यवनश्रुति, कचायतोवं, समभीरू, ताण, कार्ण, आदि देश अवश्य ही भारत मे बाहर यतानी विद्वान भ. महावीर के समय बकिटया में जैन मुनियों का होना सिद्ध करते हैं । अबीसिनिवा, ऐथुप्या, अरब परस्या, अफगानिस्तान, यनान में भी जैन धर्म का प्रचार अवश्य हुआ था।
विलफई साहब ने 'शंकर प्रादुर्भव' नाम के वैदिक ग्रंथ के आधार से जैनियों का उल्लेख किया है। जिसमें भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी दोनों तीर्थकरों का कथन 'जिन' 'महन्' 'महिमन' (महामान्य) रूप में करते हुए लिखा है कि 'अहंन्' में चारों तरफ विहार किया था और उनके चरणों के चिन्ह दूर दूर मिलते हैं । लंका, श्याम आदि देशों में महावीर के चरणों की पूजा भी होती है। परस्पा, सिरिया और एशिया मध्य में 'महिमन' (महामान्य महावीर) के स्मारक मिलते हैं। मिश्र (Egypt) में 'मेमनन' (Memoon) की प्रसिद्ध मूर्ति
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