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दोहा
इहि प्रकार रचना विविध किय कुदेर मन लाय । लोकोत्तम लक्ष्मी सकल, समोसरण रहि छाय ॥ १६६॥
चौपाई
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अब सब देव आगमन भयो, जय जय घोष हरष उर ठयी। बरपा महुवन की बहु करें, प्रति प्रसन्नता मन में घरें ।। १६७ ।। समशरण की रचना देख, चक्र भयो इन्द्र मन पेख || १६८ || पूजा तहां करी मन लाय, अष्ट द्रव्य जुत हर्ष बढ़ाय ।। १६९।। वर्धमान जिन दूगभर देश अपनी जनम सफल कर लेख ।। १७० ॥ चार वदन चहुंदिश परकाश चतुरंगुल अम्बर नभ वास ।। १७१ ।। तीन प्रदक्षिण दे शिरनाई, भक्ति भाव नहि अंग समाई ।। १७२ ।। भ्रमर समूह सबै समुदाय, वन पंचाग भूमि शिरताय ।। १७३॥
लोन प्रदक्षिण दोनी सबै धूलीसाल प्रवेश तबै मानथंभ चैत्य द्रुम तूप, जहां जिनेश्वर विम्व अनूप फिर सुरेश सब देवहि साथ, धामी जहाँ त्रिलोकी नाथ प्रति उत्तंग सिंहासन दीस, तुंरंग काय राजत जगदीश फेल रह्यो तन किरण प्रकास कोट भानु युति लाजे जास शो आदि सब देवी संग और अछरा बहुविधि रंग
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वोहर
रतनजड़ित सुरपति मुकुट, नियति नख धुति देत नभितमोलि छवि लजित अति ज्यों रविग्रह शशित ।। १७४ ।। तह सुरेश, जिन भक्तिवेश, अस्तुति करत अलाप । ज्यों नभ घन के हेत कर, बोले वचन कलाप ।। १७५ ।।
चौपाई
जय जय समोशरण आधीश, जय जय चतुरानन जगदीश जय जय मुकति कामिनी कन्त, जय जय नत चतुष्टयवंत ॥ १७६ ॥ जय जय तीर्थंकर भुवनेश, जय जय परम ध्वजा धरणेश जय जय गुरंग मुकति दातार, जय जय रत्नत्रय भंडार ।।१७ जय जय गुण अनन्त परधान, जय जय गिरविकार भगवान जय जय कर्म कुलाचल सूर, जय जय शिव तरुवर अंकूर || १७८ || जय जय जगन्नाथ तुम देव, जय जय सुर असुराधिप से जय जय महागुरु गुरुराज, पूज्य पुरुष पूजित जिनराज ।। १७६ ।। तुम जोगिन में जोगी जान, महाव्रतिन में व्रती महान तुम ध्यान में ध्यानी महा, तुम शानिन में ज्ञानी कहा ।। १८० ।। जतिन वि तुम जतिवर सोय, स्वामी परम स्वामि अवलोय तुम जिन उत्तम मुनिगण 'ईस' ध्यानवंत ध्यावहि निशदीश ।।११।। धर्मवंत में धर्म निधान, हितकारिन हो तुम हितवान । तुम त्राता भव भंजनहार, हंता स्वपर कर्म दुठ भार ॥ १८२ ॥ तुम प्रभु असरण शरण अतीव सारथवाही शिरपद सीव। तुम जग बांधव तुम जग तात, तुम करुणानिधि हो विख्यात ।। १८३ ॥
सोलह दीवारें बनी हुई थीं उस स्फटिक मणि निर्मित परकोटे के ऊपर रत्न-स्वणों के सहारे स्फटिक मणियों का ही धीमण्डप बना था। वह यथार्थतः ही श्री सम्पत्तियों का ही मण्डप है। वहां पर जगत् के लक्ष्मीपात्र सज्जन एकत्रित हुआ करते हैं। उनकी भीड़ से वह सदैव ठसाठस भरा हुआ रहता था, जिस तरह कि अर्हत प्रभुको ध्वनि से धर्मकी उपलब्धि होती हैं । उसी तरह वहां पर आकर धर्म-पर्णा के निर्णयरूपी धर्म साधना के अनुष्ठान से सब लोग मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर देते थे। उस श्रीमण्डप के बीच में मणिके द्वारा बनायी प्रथम पीठिका थी वह ऊंची बो पर उसके प्रकाशमें दिशाएं बालोकित हो रही थीं। पीठिका पर सोलह स्थानों में अन्तर दे देकर सोलह सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। बारह तो सभा प्रकोष्ठ के प्रत्येक द्वार थे और चार पीठिका पर चारों दिशाओं में विशाल एवं विशद रूपमें बनी हुई थी प्रथम पीठिका पर पाठ प्रकार के मंगल द्रव्य रखे गये थे उस प्रथम पीठिका के ऊपर सुवर्ण निर्मित द्वितीय पीठ रखा हुआ था जो अपनी दीप्ति से सूर्य एवं चन्द्रमण्डल के प्रकाश को भी तिरस्कृत कर चुका था। उस द्वितीय स्वर्ण पाठके ऊपरी हिस्से में हाथो बैल कमल वस्त्र सिंह गरुड़ एवं माला सिन्हवाल पाठ ध्वजाएं
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