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वाईस अभक्ष्य
उक्तच ओला घोर बरा निशिभोजन, वहबीजक बैंगन संघान। बड़ पीपल ऊमर कठऊमर, पाकर फल जे कहे अजान ।। कंदमल माटी विष प्रामिण, मधु माखन अरु मदिरापान । फल अतितुच्छ तुषार चलितरस, जिनमत ये बाईस खान ।।६।।
बारह बत
दोहा
पंच प्रणवत को धरै, और गुणवत तोन । ची शिक्षाव्रत निग्रहै, द्वादश वत लबलीन ॥३॥
पांच अणुद्रतों का वर्णन
चौपाई त्रस जीवन की रक्षा कर, दया भाव हिरदै में धरै। हिंसा बनिज प्रादि में गहें, प्रथम अहिसा प्रणवत लहै॥४॥
योहा हिंसा कर अरविंद नृप, सहे नरक दुख घोर । मातंगादि दया धरी, मुर बंदै जोर ॥६५॥
चौपाई सबसौं हित मित वचन सुनाय, बोले सत्य धर्म उर ल्याय। मिद्य असत्य तजै जब सही, सत्य अणुव्रत दूजी यही ॥६६॥
दोहा वसु नृप सिंहासन सहित, अवनि धंस्यौ कह झछ। राय युधिष्ठिर सत्यतं, रह्यो मोक्षपद तूट ॥६७।
चौपाई वस्तु पराई जे ठग लेइ, अपनो घटि औरहि को देइ । डरी वस्तुको ग्राह जु करै, थावी पानि पराई बरै॥६८|| चोरी करत धर्म सब नशै, दुरगति दुख सु नरक में वस। दंड सहित बध बंधन प्रादि, मानुष जनम जाय यह वादि ॥६६॥ चोरीकी नहि लीजै वस्त, अरु उपदेश न देह प्रशस्त । इहि विधि चोरी त्यागे बहै, तृतीय प्रचौर्य अणुव्रत गहै ।।७।।
दोहा चोरी ते तापस सहै, वष बन्धन अति शोक । चोरी अंजन चोर तज, भयौ सिद्धि शिव लोक ॥७॥
है और देव, धर्म एवं गुरुकी भी गुण-परीक्षा इसी ज्ञानके द्वारा होती है, जो जानसे हीन है। वे अन्धेके समान हैं और वे प्राणी हेय-उपादेय, गुण-दोष, कृत्य-अकृत्य, तत्व-अतत्व इत्यादिकी यथार्थ विवेचना में एकदम असमर्थ होते हैं। इसलिये स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्तिकी अभिलाषा रखने वालों को चाहिये कि यत्न पूर्वक प्रतिदिन जैन शास्त्रोंका अभ्यास किया करे हिंसादि पांच प्रकार के पापों का सर्वदा एवं सर्वतोभावेन त्याग तथा, तीन गप्ति एवं पांच समिति के पालने को ही व्यवहार चारित्र कहते हैं। यह भोग एवं मोक्षका देनेवाला है इसको सपूर्ण कर्मास्रवों का अवरोधक (रोकने वाला) प्रत्येक फलों का देनेवाला एवं सर्वोत्कृष्ट समझा गया है। कमों के संवरके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है। इस उत्तम चारित्रके विना कोटि-कोटि कायक्लेशोंके द्वारा किया गया तप भी व्यर्थ ही है। इसके बिना काँ का संवर नहीं हो सकता, संवरके बिना मुक्ति नहीं हो सकती और उस
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