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प्राकिचन्नम पेक्खमानो सतीमा उपसीवाति भगवान प्रस्थीति निस्साय तरस्सु मोघम् । कामे पहाय बिरतो कथा हितन्हक्खयम् रत्तमहामि पस्य ॥ १०६६ ।।
सुत्तनिपात् अर्थात हे उपसिव ! दष्टि में शून्य को रखने हुए, विचारवान बनते हुए और किसी वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हुए ध्यान करना चाहिए । इन्द्रियवासनापी आदि के त्याग से ही संसार समुद्र के पार उतर कर इच्छा के प्रभाव का अनुभव किया जायगा । इसी तरह धम्मपद में कहा गया है कि--
दुनिया को पानी का बबूला समझो, वह मृगतृष्णा का नजारा है। जो इस प्रकार दुनिया को देखता है, उसे यमराज का भय नहीं रहता (१३।१७०) सर्व ही पदार्थ नाशवान हैं, जो इसको जानता और देखना है उसके दुःख का अन्त हो जाता है। यही पवित्रता का मार्ग है (२०२७७) भगवान महावीर के स्याद्वाद सिद्धान्त में इनका उपदेश एकान्त दृष्टि से नहीं दिया गया है। उसका श्रद्धानी स्पष्ट प्रकट करता है कि---
एकः सदा शाश्वति को ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिभवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शास्वताः कर्भभवाः स्वकीयाः ।। २६।।
सामायिक पाठ अर्थात–मेरा पात्मा अपने स्वभाव में सदैव एक है, नित्य है, विशुद्ध है और सर्वश है। दोष जो हैं वे मेरे से बाहिर हैं, अनित्य हैं और कर्म के ही परिणाम रूप है। इसलिए
संयोगतो दुःखमनेकभेद, यतोऽन्ते जन्मवने शरीरी।।
ततस्त्रिधासौ परिवजनीयो, यियासुना नि तिमात्मनीनाम् ॥२८ अर्थात-शरीर के संयोग में पड़ा हुआ यह आत्मा विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है । इसलिए जिन्हें अपनी आत्मा को मुक्ति वांछनीय है उन्हें इस शारीरिक सम्बन्ध को मन, वचन, काय को अपेक्षा त्यागना चाहिए।
इस तरह स्याद्वाद की अपेछा वस्तु का यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है। म० बुद्ध की तरह भगवान महावीर ने भी संसार को अनित्य और नाशवान प्रकट किया है, किन्तु यह केवल व्यवहार नय को अपेछा है, जिसके अनुसार संसार में पर्याय उपस्थित होती रहती हैं। मूल में संसार के सामान्य अपेछा संसार नित्य हैं, क्योंकि संसार-प्रवाह का कभी अन्त नहीं होता है । इसीलिए जैन दर्शन में द्रव्य की व्याख्या "सद् द्रव्य नक्षणम् ॥२६॥ उत्पादव्यत्रौव्य-युक्तं सत्" ॥३०॥ ॥शा की है अर्थात द्रव्य सत्तावान नित्य है और यह वही है जो उत्पाद व्यय प्रौव्य कर संयुक्त है । इस तरह बस्तुओं के यथार्थ और व्यवहारिक दोनों रूपों का विवरण वास्तविक रीत्या जैन धर्म में दिया हुआ है। बौद्ध धर्म के समान एकांत वाद को यहाँ आदर प्राप्त नहीं है। इसलिए उचित रीति में ही प्राचार्य मल्लिसेन भगवान महावीर का यशोगान करते हैं---
अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः ।।
नयानशेषा नपिशेषमिच्छन् न पक्षपातो समयस्तथा ते॥ भावार्थ-- भगवान आपको वह पक्षपातमय एकान्त स्थिति नहीं है, जो कि उन लोगों की है जो एक दूसरे के विरोधी और पाप के मत से विपरीत हैं, क्योंकि आप उसी वस्तु को अनेक दृष्टियों से प्रतिपादित करते हैं।
इस तरह जैन सिद्धान्त-स्याद्वाद का महत्व प्रकट है। सचमुच यदि इसका उपयोग हम अपने दैनिक जीवन में करें तो हमारी धार्मिक असहिष्णुता का अन्त हो जावे । सब प्रकार के सिद्धान्तों की मानता की असलियत इसके निकट प्रकट हो जाती है। यही कारण है कि भगवान महावीर के दिव्योपदेश के उपरान्त उस समय में प्रचलित बहुत से मत मतांतर लुप्त हो गये थे और मनुष्य सत्य को जानकर आपसी प्रेम से गले मिले थे। इस प्रकार भगवान महाबीर और म० बुद्ध के धर्मों का दिग्दर्शन करके हम अपने उद्देशित स्थान को प्रायः पहुंच जाते हैं, अर्थात् भगवान महावीर और म० बुद्ध को विभिन्न जीवन घटनाओं का पूर्ण दिग्दर्शन कर चुकते हैं ।
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