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कल्याणक कर्ता सुखदाय, बहुविध कियी महोत्सव राय । द्वितिय चंद्रसम वृद्धि कराय, जन आनन्दकरण सुखदाय ।।१४॥ पय जल अन्न बस्तु परतेक, भुगतै अतिश्य रूप अनेक । क्रमसों कुवर सयानो भयो, जसकीरति जग बाढ़त गयो ||१५|| दिपं काम तन भूपत इसी, दिक्कुमार की उपमा जिसी। तब सो तात अध्यापक राज, दीदी कुवर पढ़ावन काज ।।१६।। पढ़ी सार वानी जिनतनी, विद्या धर्म अर्थ सूजनी। विद्या सबै पड़े सुकुमार, जो संसार चतुर्दश सार ।।१७।। यौवन समय बिता पद नाच, महाकार नाराय: लक्ष्मी बहुत तासके गेह सुख समुह भुगते घर नेह ॥१८॥ पूरब पुण्य प्रकट अब थाय, बहु विभूति गृह उपजी प्राय । चक्र धादि सब रत्न महान् नौनिधि सुखदायक परवान ।।१६।। भुचर खेचर व्यंतर देव, छहों खण्ड साध स्वयमेव । कन्या रत्न बस्तु जो सार, तिन दोनो पदसों शिरचार ।।२०।। अमर राज बत कीड़ा कर, सुरपुर समपुर शोभा घरं । लग भूमि लक्षराय की सुता, परणी परम पुण्य संयुता ।।२।। सहस छयानव रूप अपार, नाटकनी बत्तीस हजार । परम विभूति अधिक निरभंग, सेना है बलवंत अभंग ॥२२॥ आठ जाति के भूपति सबै, तिनको भेद सुनो कछु अब । कोट गांव को भूपति होय, मुकुट बंध कहियत है सोय ।।२३।। नवं पांच सौ राजा जास, अघ राजा तासों परगास । सहस राय नाव ता शीश, महाराज कहिये अवनीश ॥२४॥ दोय सहस नृप प्रणमैं पाय, कहिये अर्ध मंडली राय । चार सहस जा सेवा करें, सोई मंडलीक पद धरै ॥२५॥
आठ सहस नप सेब जास. महामण्लोक कहिये तास । सोलह सहस नवं नप शीश, अधचको नायक नर ईश ॥२६।। भूचर खेचर राजा सार, मुकुटबंध बत्तीस हजार । चक्ररती की आज्ञा धरै, नमै पाय सत्र सेवा करें॥२७॥ म्लेच्छखण्ड वसधाधिप जान, सहस प्रहारह हैं परवान | सेब चरण-कमल घरिनेह, चक्री तनो पुण्य फल तेह ।।२।। गणबद्धाधिप देव महान, सोलह सहस नमें तज मान । नर विद्याधर अमर अनेक, चक्रोपद पूजे मन एक ।।२६॥ हस्ती तुग मनोहर भाख, हैं प्रमाण चीरासो लाख । ति तने ही रय लीजें जोड़, चपल तुरंग अठारह कोट ।।३०।। प्रातूर गामी पयदल जान, चीरासो सुकोड़ परवान । प्रणमें नित चक्राश्वर पाय, यह वर्णन जानो समुदाय ।।३।। संपूरन सुख भोगवं चक्री मित प्रियमित्त । तस विभूति बल बरनऊ, यथा शक्ति मो चित |॥३२॥
चौदह रत्नों का वर्णन।
चत्र चर्म मणि काकिणी, दण्ड छम् असि नाम । ये अजीब सातों रतन, चक्रवर्ती के धाम ॥३३॥ सेनापति वनिता नपति, गहपति नाग तुरंग । प्रोहित मिल सातौं रतन, ये सजीव सरवंग ।।३४॥ चक्र दण्ड असि छत्र ये, प्रायुधशाला होत । चर्म काकिणी मणि रतन, श्रोगह लहैं उदीत ॥३५॥ बनिता गज हय तोन ये, रूपाचल पर जान । सेनापति गृहपति स्थपति, प्रोहित निजपुर थान॥३६।।
ग्रहत भगवानको महान पुजाका आयोजन हया। उसने चारों प्रकार से दान दिया मोर बाजे बजवाये। प्रिय मित्र कमार क्रमश्रमसे बढ़ने लगा। वह शोभा और भूषणों से सुशोभित देवों जसा शोभायमान हुआ।
पत्तात उस कमार ने धर्म और पुरुषार्थ की सिद्धि के उद्देश्य से जैन गुरु के पास जाकर विद्यारम्भ किया । शास्त्र अध्ययन के साथ उसने राज-विद्या का भी अध्ययन किया। अवस्था होने पर उसने लक्ष्मी के साथ पिता के पद को प्राप्त किया। उसका जीवन सुख पर्वक व्यतीत होने लगा। उस समय कुमार के पुण्योदय से उसे अपूर्व निधियाँ प्राप्त हुई। उसने उत्कृष्ट सम्पदा और छः अंगों वाली सेनाको प्राप्त किया। थोड़े ही समयमें कुमारने विद्याधरों और मागधादि व्यन्तर देवोंके स्वामियों को चक्रसे अपने वश में कर उनसे कन्यायें आदि लेकर इन्द्र के समान शोभायमान हमा।
यद्ध-यात्रा समाप्त कर वह राजकुमार चक्रवर्ती होकर अपनी पुरीमें लौटा। बड़े उत्साह पूर्वक मनुष्य. विद्याधर. प्यन्तरदेवों के स्वामियों के साथ उसने इन्द्रपुरी जैसी नगरी में प्रवेश किया । पुण्यके फल स्वरूप इस चक्रवर्तीने भूमिमोचरी और जिटाधरों की छयानवे हजार कन्याओं से विवाह किया। इस चक्री के आदेश को सिर पर धारण कर बत्तीस हजार मकटबद्ध राजा उसका पालन करते थे।