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६ उपरोक्त मान्यताओं की
तुलना
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१. जैन व वैदिक मान्यता बहुत अशों में मिलती है जैसे १. चूड़ी के साकार रूप से अनेकों द्वीपों व समुद्रों का एक दूसरे की वेष्टित किये हुये अवस्थान २ जम्बूद्वीप, सुमेरू, हिमवान, निषेध, नील, श्वेत ( रुक्मि ), ( श्रृंगी शिखरी) ये पर्वत भारतवर्ष (भरत क्षेत्र) हरिवर्ष, रम्यक, हिरणाय ( है रण्वत्) उत्तर कुरु ये क्षेत्र, माल्यवान व गन्धमादन पर्वत, जम्नुवृक्ष इन नामों का दोनों मान्यतायों में समान होना। ३. भारतवर्ष में कर्मभूमि तथा अन्य क्षेत्र में प्रेतायुग (भोगभूमि) का अवस्थान। मेरु की चारों दिशाओं में मन्दर यदि चार पर्वत जैनमान्य चार गजदन्त हैं। ४. कुल पर्वतों से नदियों का निकलना तथा आर्य व म्लेच्छ जातियों का अवस्थान ५. प्लक्षद्वीप में प्लक्षवृक्ष जम्बू द्वीप व उसमें पर्वतों व नदियों आदि का सवस्थान वैसा ही है जैसा कि भावकी खण्ड में धातकी वृक्ष व जम्बूद्वीप के समान दुगुनी रचना ६. पुष्कर द्वीप के मध्य वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत तथा उसके अभ्यन्तर भाग में घातकी नामक खण्ड है। ७. पुष्कर द्वीप से परे प्राणियों का अभाव लगभग वैसा ही है जैसा कि पुष्करार्ध से आगे मनुष्यों का प्रभाव ८. भूखण्ड के नीचे पातालों का निर्देश लवण सागर के पातालों से मिलता है। ६. पृथ्वी के नीचे नरकों का अवस्थान । १० ग्राकाश में सूर्य, चन्द्र यादि का अवस्थान क्रम । ११. कल्पवासी तथा फिर से न मरने वाले (लौकारिक) देवों के लोक २ इसी प्रकार जैन व बौद्ध मान्यतायें भी बहुत यांशों में मिलती है। जैसे १. पृथ्वी के चारों तरफ वायु व जल मण्डल का अवस्थान जैन मान्य वातवलयों के समान है। २. नेरु आदि पर्वतों का एक-एक समुद्र अन्तराल से उत्तरोतर वेष्टित वलयाकाररूपेण अवस्थान ३. जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुर, जम्बूवृक्ष, हिमवान, गंगा, सिन्धु यदि नामों की समानता । ४. जम्बूद्वीप के उत्तर में नौ क्षुद्र पर्वत, हिमवान् महा सरोवर व उनसे गंगा सिन्धु आदि नदियों का निकास ऐसा ही है जैसा कि भरत क्षेत्र के उत्तर में ११ कूटों युक्त हिमवान पर्वत पर स्थित पद्म ग्रह से गंगा सिन्धु व रोहिताया नदियों का निकास ५. जम्बूद्वीप के नीचे एक के बाद एक करके अनेकों नरकों का स्वस्थान ६ पृथ्वी से ऊपर चन्द्र-सूर्य का परिभ्रमण । ७. मेरु शिखर पर स्वर्गो का अवस्थान लगभग ऐसा ही है, जैसा कि मेरु शिखर से ऊपर केवल एक बाल प्रमाण
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इसके अनन्तर अर्ध राजु आनत स्वर्ग के ऊपरी भाग में और अर्ध राजु आरए स्वर्ग के ऊपरी भाग में पूर्ण होता है। बाद एक राजु की ऊँचाई में जो नौ मदिय और पांच अनुत्तर विमान है। इस प्रकार अलोक में राजू का विभाग कहा गया है ।। १६१-१६२ ॥
रा. ३ । ३ । १ ।
अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक विमान सम्बन्धी ध्वजदण्ड के अग्रभाग तक उन उन स्वर्गों का अन्त समझना चाहिये और कल्पातीत भूमि का जो अन्त है वही लोक का भी अन्त है ।। १६३ ।।
अबोलोक के मुख का विस्तार जग श्रेणी का सातवाँ भाग, भूमि का विस्तार जगश्रेणी प्रमाण और अधोलोक के अन्त तक ऊँचाई भी जगणी प्रमाण ही हैं ।। १६४ ।।
रा. १७३७ १
मुख और भूमि के योग को जाया करके पुनः ऊंचाई से गुणा करने पर शासन सय तोक (अधोलोक ) का क्षेत्रफल जानका चाहिये ।। १६५ ।।
१÷७÷२७ २८ रा. क्षे.फ.
लोक को चार से गुणा करके उसमें राहत का भाग देने पर अधोलोक के घनफल का प्रमाण निकलता है और सम्पूर्ण लोक को दो से गुणाकर प्राप्त गुणनफल में सात का भाग देने पर अधोलोक सम्बन्धी आधे क्षेत्र का घनफल होता है ॥ १६६ ॥
३४३४४÷७=१६६ रा. अ. लो. का घ. फ.
३४३X२ - ७६८ रा. अर्द्ध अ. लो. का घ. फ.
अधोलोक में से साली को छेदकर और उसे अन्यत्र रख कर उसका धनफल निकालना चाहिये। इस घनफल का प्रमाण लोक के प्रमाण में उनचास का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना होता है ।। १६७ ।।
रा, ७ X १×१ =७ अ. लो. व. ना. का. फ. ३४३:४६ =७ ।
लोक को सत्ताइस से गुणा कर उसमें उनचास का भाग देने पर अरे लब्ध अवे उतना साली को छोड़ शेष अधोलोक का धनफल
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