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ठण्डा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्याला धधक रही है। वायु मण्डल धरातल से ऊपर उत्तरोत्तर विरल होते हुये ५०० मील तक फैला हुआ है। पहले इस पर जीवों का निवास नहीं था। पीछे फप से सजीव पापापादि वनस्पति जल के भीतर रहने वाले मत्स्यादि पृथ्वी पर फिरने वाले मेढक यदि सरीसृप पक्षी, स्तनधारी पशु, बन्दर और मनुष्य उत्पन्न हुए। तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार और भी पसंख्य जीव जातियां उत्पन्न हुई भूमि से जल का विस्तार तिगुना है भूभाग में एशिया आदि महाद्वीप तथा अन्य अनेकों क्षुद्र द्वीप हैं। वे सुदूर पूर्व में सम्भवतः परसार में मिले हुये थे। तहाँ "भारत" एशिया का दक्षिण पूर्वी भाग है। जिसके उत्तर में हिमालय और मध्य में विन्ध्याचल, सतपुड़ा आदि पर्वत है। पूर्व व पश्चिम की ओर सागर में गिरने वाली गंगा सिन्धु आदि नदियां हैं। देश के उत्तर में प्रायः चार्य जाति तथा अन्य दिशाओं में द्राविड़ भील कोल तथा धनेक पर्वतीय जातियां (मलेच्छ) रहती हैं। इस भूखण्ड के चारों ओर अनन्त माकाश है जिसमें सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते हैं। चन्द्रमा अधिक समीपवर्ती है। तत्पश्चात् क्रमशः शुक्र, बुध, मंगल, बृहस्पति, शनि यदि ग्रह है। इनसे साढ़े नौ करोड़ मील परे सूर्य तथा प्रसंख्यात मील दूर असंख्यों तारे हैं । चन्द्रमा व ग्रह स्व प्रकाशित नहीं हैं, बल्कि सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हैं । तारे यद्यपि दूर होने के कारण बहुत छोटे दिखाई देते हैं । परन्तु इनमें सूर्य के बराबर या उससे छोटे बहुत ही कम है। प्रायः वे सब सूर्य की अपेक्षा लाखों करोड़ों वृणा बड़े हैं तथा स्वयं जागवल्यमान बड़े सूर्य हैं। इस प्रकार सोक का प्रमाण असंख्य है तथा इस पृथ्वी के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं जीव राशि का अवस्थान नहीं है। पहले मंगल ग्रह नै जीवधारियों की सम्भावना का अनुमान किया जाता था, पर अब किसी भी ग्रह में उनको स्वीकार नहीं किया जाता है ।
में
अ. लो. ७ रा. म. लो. १००००० यो । ऊ. लो. रा. ७ ऋरण १००००० यो । इन तीनों लोकों में से
पृथ्वियां एक-एक राजु के अन्तराल से हैं ।। १५२ ||
थापा वालप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमः प्रभा और महातमा सात
विशेषार्थ - ऊपर प्रत्येक पृथ्वी के मध्य का अन्तर जो एक राजु कहा है वह सामान्य कथन हैं विशेष रूप से विचार करने पर पहली और दूसरी पृथ्वी की एक शत्रु में शामिल है अब इन दोनों पृवियों का अन्तर दो साथ बारह हार योजन कम एक राजु होगा। इसी प्रकार आगे भी पुषियों की मुटाई प्रत्येक राजु में शामिल हैं अतएव मुटाई का जहाँ जितना प्रमाण हैं उतना कम एक राजु वहाँ अन्तर जानना चाहिये ।
धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये उपर्युक्त पृथ्वियों के गोत्र नाम हैं ।। १५३।। मध्यलोक के अधोभाग से प्रारम्भ होकर पहिला राजु शर्कराप्रभा पृथ्वी के अधोभाग में समाप्त होता है ।। १५४ ।।
रा. ।
इसके आगे दूसरा राजु प्रारम्भ होकर वालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है, तथा तीसरा राजु पंकप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है ।। १५५||
रा. २ । ३ ।
इसके अनन्तर चौघा राजु धूमप्रभा के अधोभाग में और पांचवां राजु तमःप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है ।। १५६ ॥
रा. ४ १५ ।
पूर्वोक्त क्रम सेठ राजु महातमः प्रभा के अन्त में समाप्त होता है और इसके आगे सातवां राजु लोक के तलभाग में समाप्त होता
है ।। १५७
रा, ६ । ७ ।
मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान के ध्वजदण्ड तक एक लाख योजन कम डेढ़ राजु प्रमाण ऊंचाई है ॥ १५८ ॥
रा १३ ऋण १००००० यो.
इसके आगे टेड राजु माहेन्द्र और सामरकुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में समाप्त होता है। अनन्तर माथा राजु बह्मोत्तर स्वयं के ऊपरी भाव में होता है।।१५।।
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इसके पश्चात् आधा राजु काविष्ट के ऊपरी भाग में आधा राजु महाशुक के ऊपरी भाग में और बाधा राजु सहवार के ऊपरी भाग में समाप्त होता है ॥ १६० ॥
राई । इ इ । ५०