________________
तहाँ धरी वसू मंगल दव, सेवक जक्ष देव हैं सर्व । धर्म चक्र निज माथै लियं, देखि भान यति लाज हिय ।।१४७॥ तह ते द्वितिय पीठिका दीस, हेममई शोभा जिहि मीस । मेक शिखर मानों उत्तंग, जगमगाय सूरज सम रंग ।।१४८|| पाठ ध्वजा माठौं दिश जान, तिनकी शोभा अधिक बखान । तिनमें पाठ चिन्ह वरनये, चक्र गयंद वृषभ पुनि ठये ।।१४६॥ कमल वसन मगपति जु सरूप, गरुड़ माल वमु चिह्न अन्ग । सूक्ष्म पाटम्बर संजुक्त, मन्द पवन हाल प्रध मुक्त ॥१५॥ ततीय पीठ अति शोभा लरी, तीन मेखला कर मन बसै । पंच वरण मणिमय झलकंत, किरण ज्योति दश दिशि फलंत ॥१५१।। ता पर गंधकुटी निरमई, सर्व रतनकी छवि वरनई। चहुं दिश चार दुवार अनूप, अरुण वरण मणिमय तिहि रूप ॥१५॥ तीन पीठपर शोभा लस, के धौं तीन जगत शिर वसै। परम सुगंध वहै जहं वाय, शिखर मनोज्ञ ध्वजा फहराय ॥ १५३॥ तहां हेम सिंहासन धरयो, तिहि प्रकाश कर अन्ध तम हरयौ । बह विधि रतन ज्योति झलमलै, मानों जग लक्ष्मी मन रलै ।।१५४||
दोहा चतुरंगल तह तें रहें अन्तरीक्ष भगवान । त्रिभुवन पूजित वीर जिन, जग शिर सिद्ध समान ॥१५॥ समोश रण महिमा अगम, रचना बहु विस्तार । तीन लोककी संपदा, को कहि पावै पार ॥१५६।। मूनि विहंग उद्यम करे, पं उढ़ पार न लोन । श्री जिन नभ शोभा कथन, कौन कहे नर दीन ॥१५७।।
अथ अष्ट प्रातिहार्य वर्णन
पद्धडि छंद राजत अशोक तरुवर उप्तंग, सो मन्द पवन थरहरत अंग । प्रभु पांय निकट नाटक करत, तहं पहुप गन्ध षटपद रमंत ।।१५८॥ प्रभु अंग देखि डरप्यौ सुकाम, जग ढूंड्यो शरण न राख ताम । फिरि प्रायगि रोप्रभ भरण पाद, वरष ज पहप होकर अल्हाद ॥१५॥ प्रभुको तन हिमवन गिरि सरोस, मुख वचन गंग निकसी गरीस । श्रुतज्ञान उदधि में मिली जाय, सप्तांग भंग लहरन समाय । प्रभु ऊपर चौंसठ चमर सार, दारंत यक्ष नायक अपार । जिम क्षीरसमुद जल कलश लेइ, शिरचार प्रवाही धविधरेइ ॥१६१।। चामीकर रतननि खचित जास, सिंहासन उन्नत अति प्रकास । तापर प्रभु राजत उदित भान, विकसाबत भविजन कमल ज्ञान ।। प्रभु दिव्यौदारिक तन मनोग , तहं कोट भानु द्युति लहिय जोग । शशित अति शीतल शान्त रूप, भामंडल छवि कहिये अनूप । है मोह जगत जोधा अमान, प्रभु जीत्यौ गुक्ल कृपाण ठान । तस विजय बजे पटहा निशान, तह सकल दु'दुभी मयुर गान ।। प्रभु छत्र तीन त्रिभुवन उदेत, सो धवल वर्ण मुक्ता समेत । सोहै शिर ऊपर प्रति अनप, शशि नखत सहित मनु त्रिविध रूप ।।
विशाल राज-पथके मध्य में पद्यराग मणियों के बनाये हए नौ रत्न-स्तम्भ खड़े थे और उनमें अहंत एवं सिद्ध भगवान की सन्दर प्रतिमाएं विराजमान थीं। साथ ही उनमें विविध रत्नोंकी वंदनवार बंधी हुई थी और उनके विविध वर्ण के प्रकाश से आकाश अनेकों हरे, पीले, लाल एवं नीले रंगोंसे रंगा हुआ-सा दीख पड़ता था, जिसे देखकर लोगोंको इन्द्रधनुष की भ्रान्ति हो जाती थी। व रत्न-स्तम्भ पूजा-द्रव्योंसे और छत्र ध्वजादि मांगलिक वस्तुओं से सुशोभित थे। इनका महत्त्व धर्ममूर्ति के समान था। वहां पर अनेक भव्य-जीव एकत्रित होते और उन प्रतिमानों का प्रक्षालन, पूजा प्रदक्षिणा एवं स्तुति किया करते थे। इस प्रकार सभी लोग उत्तम धर्मोपार्जनके कार्य में दत्तचित्त रहते थे। इसके बाद और भी कुछ भीतर जाने पर स्वच्छ स्फटिकमणि का बना हुआ परकोटा था जो अपनी शुभ्र ज्योत्सनासे सम्पूर्ण दिशात्रों को प्रकाशित कर रहा था। उस परकोटेके सब द्वार पद्यराग मणियोंसे बनाये हुए थे और भव्य जीवों के एकत्रित अनुराग की तरह पाकर्षक थे। इन द्वारों पर भी पहले ही की तरह तोरण प्राभूषण, नौ निधियां, तथा गान-बाद्य-नृत्य हो रहे थे और चमर, बीजना, दर्पण, ध्वजा, छत्र, भारी एवं कलश इत्यादि पाठों मंगल द्रव्य प्रत्येक द्वार पर रखे हुए थे। उन परकोटों के दरवाजों पर गदा एवं कृपाण प्रादि प्रायुधों से सुसज्जित होकर क्रमशः व्यन्तर देव, भवनवासी एवं कल्पवासी देव पहरा दिया करते थे। उस स्फटिक मणिवाले परकोटे से लेकर प्रथम पीठ पर्यत लम्बी